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________________ यह सर्वविदित ही है कि जैन न्याय के मूल तत्व अनेकान्त प्रमाण, नय, स्याद्वाद औ सप्तमंगी मुख्य हैं। आचार्य विशुद्ध सागर जी ने देशना में इनकी सम्यक् उपयोगिता निरूपित करते हुए एकान्त नयाभासों, प्रमाणाभासों का अपेक्षित रूप से निरसन करके जैन समाज को सापेक्ष न्याय के अवलम्बन से तत्त्वार्थों का यथार्थ श्रद्धान करने हेतु प्रबलता से व्याख्यान किया है। जैन धर्म तत्त्व सात हैं जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष | इन्हीं में पुण्य-पाप को सम्मिलित करने से नव पदार्थ कहलाते हैं। पुण्य-पाप आस्रव बन्ध तत्व से ही विशेष हैं। इन्हें पृथक से कहने का उद्देश्य यही है कि यद्यपि ये आस्रव और बन्ध सामान्य की दृष्टि से कर्मोंपाधिजन्य होने से समान हैं तथापि अपेक्षा दृष्टि से पाप तो सर्वथा त्याज्य है और पुण्य (शुभ) तात्कालिक उपादेय हैं। इन सभी का निरूपण आचार्य श्री ने सर्वांगीण विचार प्रकाशन युक्त शब्दावली द्वारा किया है । शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ एवं भावार्थ द्वारा उदाहरणों के परिवेश में सुपाच्य एवं सामयिक शैली में किया है। इन तत्वों के निरूपण में सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक़ न्याय परिपाटी को अपनाया है। स्वरूप सम्बोधन के ही अन्तर्गत प्रयुक्त विरूद्ध शक्ति द्वय युक्त यथा मुक्त- अमुक्त, ग्राह्य-अग्राह्य, स्थिति व्यय - उत्पत्ति रूप, चेतन-अचेतनात्मक, भिन्नअभिन्न, सर्वगत-असर्वगत, एकात्मक - अनेकात्मक, वाच्य - निर्वाच्य, मूर्तिक - अमूर्तिक आदि अनेक धर्मात्मक जीव तत्त्व का प्रमुखता से जो वर्णन है उसे जीवन की प्रत्येक स्थिति में अपने चिन्तन का विषय बनाने हेतु आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने श्रोताओं हेतु नाना उपक्रम किये हैं। पाठक को संभवतः विषयान्तरता का अनुभव हो कि प्रमाण विषय में छोटे-छोटे अन्य लौकिक सामाजिक व अन्य वाङ्मय के प्रसंगों को क्यों पारायण करें। इससे उसे आचार्य श्री के लोकहित दृष्टिकोण को भी रखते हुए न्याय शास्त्र की अध्यात्म विषयक प्रवचन उपयोगिता की अनुभूति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। आचार्य तो आचार्य हैं उनका उद्देश्य स्व के आचरण के साथ पर को भी चारित्र संयम में लगाये रखना ही है। आगे हम करुण हृदय आचार्य श्री के कुछ वाक्य न्याय शास्त्र के उपयोग सम्बन्धी प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं, प्रस्तुत है । 1. "ये जैन न्याय बोल रहा है । सिद्ध को सिद्ध नहीं करना पड़ता, असिद्ध स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International - For Personal & Private Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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