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अकलंक स्वामी की श्लोकान्तर्गत उक्तियों में भी आचार्य देशनाकार ने न्याय के बीजों को आवश्यकतानुसार चयन कर पल्लवित करने का प्रयास किया है। यह अध्यात्म और न्याय की समष्टि ही स्वरूप देशना की महती विशेषता है। हमें देशना ग्रन्थ के पूर्व के आधे भाग में तत्त्वनिर्णय में न्याय की उपयोगिता के अपेक्षाकृत अधिक प्रस्तुतीकरण प्राप्त होते हैं। इनसे जैनेतर दर्शनों की ऐकान्तिक मान्यताओं का निरसन सहज रूप में हो जाता है।
यहाँ हम उनके कतिपय उपदेशों के माध्यम से पाठकों को न्याय विद्या की उपयोगिता के दर्शन कराना अभीष्ट समझते हैं। यह ज्ञातव्य है कि तर्क हेतु विद्या, प्रमाण शास्त्र, दर्शन शास्त्र आन्वीक्षिकी और न्याय आदि एकार्थवादी है, यथास्थान आचार्य श्री ने देशना में इनका प्रयोग किया है।
तत्त्व निर्णय हेतु विद्धज्जनों के लिए भी उनका निम्न सम्बोधन देखिए, "प्राचीनता की रक्षा के लिए नवीन कथन किर्या नवीनता की सिद्धि के लिए प्राचीनता का नाश नहीं करना । बड़ा विवेक लगाना | इसलिए आज लगता है कि न्याय शास्त्र पढ़ना ही चाहिए | समय बोल रहा है कि न्याय शास्त्र पढ़ना ही चाहिए । पंडित जी! विद्वानों को आप बोलो, न्याय शास्त्र पढ़िए, क्योंकि तर्क के बिना आप शासन की रक्षा नहीं कर पाओगे । तत्त्व का जो निर्णय है, वह तर्क से ही होगा। बिना तर्क के तत्त्व का निर्णय सम्भव नहीं है। 'तर्कात्तन्निर्णया' निर्णय तो तर्क से होगा । (पृष्ठ-310)... ___ आज विद्वानों में भी जो तर्क शून्य एकांगी आध्यात्मिक तत्त्व निर्णय की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है उसी. परिप्रेक्ष्य में आचार्य श्री की देशना का उपर्युक्त अंश प्रकट हुआ है। हमने जो पूर्व न्याय शास्त्रों के नामोल्लेख कतिपय किये हैं उनके अध्ययन की महती उपयोगिता, देशना में आचार्य श्री ने निर्देशित की है।
“तर्क से तो वस्तु स्वरूप का निर्णय होता है और तर्क का अर्थ ऐसा क्यों? ये कोई तर्क नहीं होता है। ऐसा क्यों, ऐसा क्यों,शब्दों को बोलना कोई तर्क की परिभाषा नहीं होती है। उपलक्मानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः॥7॥
परीक्षामुख सूत्र।
स्वरूप देशना विमर्श
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