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________________ परोक्ष की सांव्यावहारिक प्रत्यक्षता को भी प्रस्तुत कर विश्व को चकित कर दिया। अग्रिम काल में अकलंक देव के ग्रन्थों और टीका साहित्य पर आचार्य विद्यानन्द, आ० प्रभाचन्द, आ० माणिक्यनन्दि आदि ने अष्टसहस्री, प्रमेय कमलामार्त्तण्ड, आप्त परीक्षा, परीक्षामुख सूत्र आदि ग्रन्थों की रचना की । 'स्वरूप देशना' आ० अकलंक की मात्र 25 श्लाकों की कृति है, जो 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करती है। स्वरूप सम्बोधन पर आचार्य विशुद्ध सागर जी ने जो देशना का महत्कार्य किया है वह न्याय सम्मत तत्त्व निर्णयरूप ही है। उनका व्याख्यान जैन न्याय, जिसे अकलंक के नाम से प्रसिद्धि मिली के परिप्रेक्ष्य में तत्त्वों, आध्यात्मिक, आगमिक स्वरूप के उपादानों को सिद्ध करता हुआ, हमें पूर्वाचार्यों के निर्णयों को स्थापित करता हुआ प्रकट शोभायमाना है। देशना में तत्त्व - निर्णय हेतु न्याय के प्रयोग: न्याय शास्त्र की परिपाटी का जो विवेचन किया है उसका उद्देश्य यह है कि आचार्य विशुद्ध सागर जी ने उसी के अनुसारी रूप में तत्त्व निर्णय की पद्धति में न्याय शास्त्र की उपयोगिता को प्रकट किया है। वे तो आध्यात्मिक तत्त्वगवेषणा में न्याय विद्या को अभिन्न अंग मानते हैं। वर्तमान में आध्यात्मिक विवेचनाओं के जो रूप अन्य पूज्य गुरुओं एवं अध्यात्म के अध्येताओं के लेखन, वाचन और प्रवचनों में दृष्टिगत होते हैं उनसे विशेषताओं को लिए हुए स्वरूप देशना में आचार्य का अभिमत, स्पष्टीकरण रूप में न्याय विद्या को पुरस्कृत करता हुआ अवगत होता है। स्वरूप सम्बोधन मूल ग्रन्थ में प्रारम्भिक 10 श्लोकों में भट्ट अकलंक देव ने अनेकान्त प्रमाण, स्याद्वाद की विधि से जैन दर्शन के जो मूल तत्त्वों का उद्घाटन किया है वह सामान्य जनों की ग्रहण शक्ति से परे है। उसी को सर्व जनों के हृदय में सरल शैली में विशुद्ध सागर जी आगमिक शब्दों की समष्टिपूर्वक स्थापित करने का भगीरथ प्रयत्न किया है। उसमें भी मीठे सुपाच्य शब्द प्रयोग में रूक्ष और क्लिष्ट न्याय विषय को, कडुवी औषधि को मीठी चाशनी में मिलाकर देने के समान हितावह रूप में प्रस्तुत किया है। आगे के 15 श्लोकों में अंतरंग परिणति के मोक्षमार्गीय अवधारणा स्वरूप की - स्वरूप देशना विमर्श 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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