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________________ - व्याप्ति के ज्ञान को मूहा कहा जाता है। मूहा अर्थात् तर्क तर्क भी आप दो तो आपके तर्क में व्याप्ति घटित होना चाहिए और जिसके तर्क में व्याप्ति घटित नहीं हो रही वह कोई तर्क भी नहीं है। ज्ञानियों! तर्क का प्रयोग आगम की रक्षा के लिए करना, लेकिन जिनवाणी को तोड़ने में तर्क का प्रयोग मत करना । वह तर्क नहीं, कुतर्क है। दो पर तर्क नहीं चलता । एक तो, आगम पर तर्क नहीं चलता, दूसरा स्वभाव पर तर्क नहीं चलता।..... शुद्ध्यशुद्धीपूनः शक्तिः ते पाक्यापाक्यशक्तिवत्। साधनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्क गोचरः||100॥ आप्तमीमांसा .......... शुद्ध शक्ति की (आत्मा में) अनादि से है, अशुद्ध शक्ति की अनादि से है।" जो आत्मा को सर्वथा त्रिकाल शुद्ध मानते हैं। उन्हें देशनाकार की प्रबल आगम सम्मत युक्ति से आत्मतत्त्व को शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपों में सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करना चाहिए। स्वरूप देशन में न्याय की उपयोगिता के महत्व को दर्शाने वाले उभय दार्शनिक रूपों के दर्शन प्रायः होते हैं। प्रथमतः जैनेतर न्याय शास्त्रों के अभिमत प्रकट कर उनका सम्यक् निरसन करते हुए अनेकान्त प्रमाण जैन दर्शन की स्थापना की शैली आचार्य ने अपनाई है। द्वितीय रूप में जैन न्याय को बहुलता से प्रस्तुत कर तत्त्व निर्णय हेतु जिज्ञासुओ को प्रेरित किया है। ज्ञातव्य है कि द्वादशांग जिनवाणी में जैन न्याय विद्या एवं जैनेतर असमीचीन प्रमाण विषयक मान्यताओं का स्वरूप बारहवें अंग, दृष्टिवाद अंग में वर्णित किया गया है। यह पूर्वगत भेद में पंचम पूर्व ज्ञानप्रवाह में सविस्तार वर्णित है। यह कहना अपने में सम्पूर्ण है कि जैन न्याय अथवा सर्व 363 प्रकार की मान्यताओं का ज्ञान स्रोत ज्ञानप्रवाद पूर्व है। इसके आधार पर चूंकि 'सम्यकज्ञान प्रमाण’ प्रमाण का लक्षण है, इस पूर्व में प्रमाण के अनेकों प्रकार के प्ररूपण हमें दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक स्वरूप निम्न तालिका से अवगम्य है। यह विक्षेपिणी विद्या की दृष्टि से प्रस्तुत है-तालिका नं०1 (16) -स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org Jain Education international For Personal & Private Use Only
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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