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बात करना, दूसरे की बात को झूठा नहीं करना । क्योंकि “आगम चक्खू . साहू | इसलिए आगमानुसार वाले श्रमण वंदनीय संरक्षणीय हैं। पृ०
388-389 89. विधि का विधान/विधि (भाग्य) होने पर विधियां मिलती हैं- विधि/ भाग्य/
पुण्योदय होने पर सभी विधियाँ/सुयोग मिलते हैं। माँ ने बेटे की भावनापूर्ण करने हेतु खीर बनाई और देने के लिए श्रमण को भोजन कराने का बच्चे को बोलकर पानी भरने चली गयी, सिर पर घड़ा लेकर आई, उधर से आते मुनिराज की विधि यही थी सो विधि मिल गयी- आहार - जयजयकार हुआ। गुरू सेवा का फल सदैव श्रेष्ठ होता है। इसलिए गुरुसेवा का कर्तव्य करना।
पृ० 390 90. निषधिका और उसकी वंदना से लाभ-जिस भूमि पर श्रुत का लेखन - वाचन
होता है वह भी तीर्थ भूमि है। 17 प्रकार की निषधिकायें- प्रतिक्रमत्रयी ग्रंथ में उल्लिखित है-निर्ग्रन्थ मनि की समाधि स्थली निषधिका है। यही नसिया जी रूपान्तरित हो गया है। अरिहंत बिम्ब, तीर्थंकरादि के 5 कल्याणक स्थल, श्रुताराधना स्थली आदि सभी निषिधिकायें हैं। सभी साधु षडावश्यकों के रूप में इनकी वंदना करते हैं। निषिधिका वंदना कर्ता के आयुबंध होने पर ऋजुगति
में गमन होता है वक्र मन्न वालों के वक्रगति होती है। पृ० 392-93 91. समाधि और समाधिमरण में अन्तर-समाधि का अर्थ मरण नहीं बल्कि सम +
धी अर्थात् प्राणी मात्र के प्रति समान बुद्धि का अथवा निज स्वरूप में लीन होने का, चित्त की निज में लीनता होना समाधि है और ऐसी समाधि सहित मृत्यु होना समाधि मरण है। समाधि रहित मृत्यु का होना मरण है समाधि नहीं । पृ०
394. ... 92. चातुर्मास माहात्म्य- श्रमणगण चातुर्मास में एक जगह ठहर कर धर्म प्रभावना
करते हैं। मात्र यह चातुर्मास नहीं । योगी स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल – भाव में लीन होता है उसका यही निज चतुष्टय चातुर्मास है। वन- उपवन, ग्रीष्म, वर्षा, शीतकालादि में मूलगुण वही उतने होते हैं। अन्तरंग चातुर्मास यथाशक्य
निजलीनता है और बहिरंग चातुर्मास धर्मध्यान पूर्वक धर्मप्रभावना है। पृ० 395 93. श्रमणत्व सदैव पूज्य है- अमरावती चातुर्मास - शुद्धि को जाते समय एक
महाराष्ट्रियन 5 वर्षीय बालक की घटना से सिद्ध किया है कि श्रमणत्व सर्वत्र . सदैव पूज्य है रहेगा । बालक कहता है कि "आई-आई-लवकर आ..
जैनियों के भगवान जा रहे हैं। अतः श्रद्धालु के लिए मुनिमुद्रा जिन मुद्रा है। स्वरूप देशना विमर्श
-(241)
आ..........."
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