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________________ जैसे हम पाषाण प्रतिमा में स्थापना निक्षेप से चतुर्थकालीन अरिहंतसमवशरण की कल्पना कर लेते हैं तथैव पंचमकालीन श्रमणों में चतुर्थकालीन श्रमण स्वरूप देखें। सोनागिर-विपुलाचल पर विराजित चन्द्रप्रभू – महावीर को साक्षात समवशरण मानकर जिनदेशना का श्रवणकर! शास्त्रों को मात्र कागज नहीं समझें । देवशास्त्रगुरु में श्रद्धान स्थापित करें।पृ० 396 94. वैभव से वे-भव होना सार्थक है- यह जीव वैभव के नाश होने पर बहुत रोता है किन्तु वे-भव होने के लिए नहीं । नेत्रों में स्वास्थ्य लाभ एवं आध्यात्मिक दृष्टि से सजलता सदैव रहना चाहिए । क्योंकि यदि मस्तिष्क का जल सूख जाये तो वह निष्क्रिय हो जाता है उसी प्रकार धर्मायतनों के प्रति धर्मवात्सल्य सखना नहीं चाहिए । धर्माराधना केवल ड्यूटी बतौर नहीं रूचिपूर्वक कर्तव्य सहित होना . चाहिए । पृ० 397 95. सत्पात्रों को/अतिथियों को दान की प्रेरणा- साधु को चौका लगाने पर - खाली रहने पर विकल्प नहीं करना चाहिए | क्योंकि सत्पात्र उत्तम, मध्यम, जघन्य भेद से 3 हैं। मुनिगणादि महाव्रती, प्रतिमाधारी देशव्रती तथा अविरत सम्यग्दृष्टि/देवशास्त्रगुरू का उपासक । घनानद पाने के लिए घना-घना पुण्यार्जन आवश्यक है जो त्रिविध पात्र को नहीं मानता है वह प्रथम मिथ्यादृष्टि है। यथा आगमोक्त कथन - अज्जवि तिरयज सुद्धा, अप्पा झाए विलहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआणिब्बुदिं जंति ॥ 77 || (मोक्ष पाहुड/अष्ट पाहुड) कुन्दकुन्दाचार्य - सम्प्रतिकाल / आज भी रत्नत्रय से शुद्धता को प्राप्त मनुष्य आत्मा का ध्यानकर इन्द्र व लौकांतिकादि पद प्राप्त कर वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। अतः सत्पात्रों को दानादि देकर अतिथि सत्कार अवश्य करना चाहिए | पृ० 399 7. उपसंहार- इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य श्री ने स्वरूप देशना के माध्यम से गागर में सागर समाहित किया है। आलेख के इन पृष्ठों में यह संक्षिप्त ही कथन है यदि इसे विस्तार किया जाये तो यह इक भाष्यग्रंथ हो जायेगा। इस 25 कारिका प्रमाण लघुकृति पर एक क्या कई शोध ग्रंथ प्रस्तुत किये जा सकते हैं। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी के सागर समान विशाल चिन्तन को एक पोखर में समेटने का यह अल्प धी कृत प्रयास है। 400 पृष्ठीय देशना को 21 पृष्ठों में समेटना हास्यपूर्ण ही होगा फिर भी किया है। (242 -स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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