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सागर जी शिष्य आचार्य विराग सागर को लेने पहुँच गये। जब विराग गुरू ने प्रश्न किया तो विमल सागर जी ने कहा गुणवंदना हेतु मैं विराग सागर को लेने नहीं मैं तो तीर्थंकर मुद्रा की अगवानी करने गया था। यह आदर्श अनुकरणीय
है।पृ० 381 86. तीर्थों के भेद व मोक्षमार्ग की एक्यता-पूजन पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती
हैं किन्तु रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग तो एक ही है। श्रमण संस्कृति चेतन तीर्थ है। तीर्थ क्षेत्र अचेतन तीर्थ हैं और तीर्थंकर की वाणी/जिनवाणी शाश्वत तीर्थ है। गुरु के शुभाशीष से विद्यामंत्र की सिद्धि होती है। "आयरिय पसादो विज्झा मतं सिज्झति ॥ गुरुशुभाशीष जयवंत होता है। ऐसे मोक्षमार्गी गुरु के प्रति सदैव
आस्था/समर्पण रखना चाहिए । पृ० 383 87. वात्सल्यगुण से ही धर्म-आत्म प्रभावना- बुन्देलखण्डीय संस्कृति में
गजरथादि प्रवर्तन कराने पर सिंघई आदि उपाधि प्राप्त होती है। अच्छा है किन्तु कराने वाले को परिजन-पुरजनादि के मध्य वात्सल्य भावपूर्वक ही यह पुनीत कार्य करना चाहिए । देवपत-खेवपत धनहीन थे, धर्महीन नहीं प्रतिफल स्वरूप ज्वार के दाने मोती बन गये और उन्होनें उनका सदुपयोग कर धर्म संस्कृति का सरंक्षण, सम्बर्द्धन कर निज पर प्रभावना की। श्रमण संस्कृति वंदनीय रहेगी- “जब तक होगा अवनी और अम्बर, तब तक भारत भूमि पर
विचरण करेगा दिगम्बर ॥ पृ० 385 88. श्रमण संस्कृति के संरक्षण की प्रबल प्रेरणा- हम केवल नाम के मुमुक्षु नहीं,
कमण्डल वाले मुमुक्षु मंडल बनायें । दीक्षा लेने वाला तो पुण्यात्मन है ही देखने वाला भी पुण्यात्मा है। आत्मानुशासन में ग्रंथकार कहते हैं। "पराकोटि समारूदौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयो, यस्त्यजेत्तपसे चक्र, यस्तयो विषयाशयाः||164॥ इस जगत में उत्कृष्ट स्तुति व निन्दा के 2 ही पात्र हैं जो विषय कषाय के लिए तपस्या छोड़ता है वह निन्दा का तथा जो तपस्या के लिए चक्रवर्ती पद छोड़ रहा है वह स्तुति का पात्र है। सच्चा मुमुक्षु ही स्तुत्य है। श्रमण-संघों में चतुर्विध संघ के रूप में विभिन्न प्रान्तों के भव्यजीव साथ बैठते रहते हैं। ये सभी पुण्यात्मन ही हैं। धरती के सभी नव कोटि मुनिराज वंदनीय हैं। भोजपुर में आचार्य विद्यासागर जी ने पास में बिठाकर बहुत सीख दी, पूज्य गुरुदेव आचार्य विराग सागर जी ने 1996 में समस्त संघ को सद् सीख दी अपनी अर्थात् आगम की
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-स्वरूपदेशना विमर्श
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