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________________ आरोहण भी स्वरूप सम्बोधन से होगा। जिनशासन की रक्षार्थ आक्षेपिणीविक्षेपिणी कथा किन्तु समाधि के लिए संवेगिनी-निर्वेगनी कथा अपेक्षित है। हिस्सा मांगे जाने पर अपना बेटा भी पराया प्रतीत होने लगता है। रागद्वेष से परे निजात्म तत्व अवश्य पहिचाने।पृ० 369-371 82. साधु कौन? साधु अर्थात् सज्जन/अच्छा व्यक्तित्व, किन्तु जो स्वयं सज्जन हो वही दूसरे को सज्जन रूप में पा सकता है। अच्छे मन-वाणी से ही सज्जनता झलकती है। मंगलमय वातावरण बनता है। घर-बाहर यही प्रयोग करें। सज्जनों की संगति में दुर्जन भी सज्जन बन जायेगा। “भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः” हे भगवन आपके पादमूल में अभद्र भी आकरसमन्तभद्र बन जाता है। इन्द्रभूति-अग्निभूति- वायुभूति आदि 500 महावीर को समझाने आये थे किन्तु साधु को देखकर सभी असाधु साधु बन गये । अर्थात् मंगलमय योगत्रय से मंगल ही होता है। पृ० 373-74 83. आराध्य की आराधना पुजारी बनकर विश्वास से करो- हम याचक / भिखारी बनकर नहीं पुजारी बनकर सम्यक् भाव-द्रव्य पूर्वक विधि से आराध्य की आराधना करें। हीन द्रव्य-भाव से पुण्यक्षीण होता है। अतः पुण्य क्षीण नहीं करे।पुण्य बढ़ाये, अपने देवशास्त्रगुरु की आराधना विश्वासपूर्वक ही करें तभी कल्याण होगा। वेदों,शास्त्रों व आत्मा का पाण्डित्य भिन्न-भिन्न है। वेदों का ज्ञान मुख तक/मस्तिष्क तक होता है किन्तु आत्मा का पाण्डित्य ध्रुव अखंड ज्ञायक स्वरूप होता है अतः वही विश्वास योग्य है।पृ० 375-376 84. साधु के नाम के साथ 'सागर' विशेषण क्यों- श्रमण संस्कृति दासता की नहीं, स्वाधीनता की संस्कृति है। भक्त और भगवान में केवल राग और वीतराग दशा का अन्तर है- यथा - 'जो मैं हूँ वह हैं भगवान, मैं वह हूँ जो हैं भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान' | पुनश्चसागर । समुद्र के समान योगी। साधु गंभीर होता है। यथा समुद्र में मोती होते हैं वह अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करता तथैव साधु में रत्नत्रय के मोती हैं वह भी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते इसीलिए सागर प्रयुक्त है। पृ० 378 85. द्रव्य -भाव तीर्थ - श्रमण संस्कृति के संरक्षण की प्रेरणा- जो जीव व्यवहार को नहीं मानता है वह व्यवहार तीर्थ का और निश्चयनय को नहीं मानने वाला भाव/निश्चय तीर्थ का शत्रु है। निजधुव आत्माराधना तीर्थरूप पुण्य भूमि पर ही कर पाओगे।क्योंकि सरागावस्था में सालम्ब ध्यान गृहस्थ की दशा है परोक्ष में भी श्रमण संस्कृति वंदनीय है। सोनागिर प्रवेश होने पर आचार्य श्री विमल स्वरूपदेशना विमर्श 239 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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