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________________ . 77. साधु-श्रावक षडावश्यकों का पालन कर्तव्य भावना से करें- सिद्ध बनने तक साधु को जिनवंदना-पंचपरमेष्ठी की वंदना षडावश्यकों के अन्तर्गत अनिवार्य है। इसी प्रकार सुधी-श्रावकों को भी श्री जिनाभिषेक - पूजनादि षडावश्यक सुख-समृद्धि प्राप्ति की भावना से नहीं कर्तव्य भावना से करना चाहिए। सकाम नहीं निष्काम भक्ति करें । यथा ताली की आवाज टेपिंग करने के बाद वही आवाज प्रयोगात्मक रूप में भी आती है। तथैव त्रिलोकीनाथ की । पूजाराधनादि करने से पुण्य की आवाज स्वतः अवश्य आयेगी। 78. आत्म कल्याण के दो ही काल- आत्म कल्याण के 2 ही काल हैं सर्वश्रेष्ठ चौथा काल तथा श्रेष्ठकाल पंचम काल । इसमें इतना पुण्य भी सार्थक है कि श्री देवशास्त्रगुरू का समागम मिल रहा है। उसके भी 2500 वर्ष निकल चुके हैं। शेष 18500 वर्ष में भी आत्म कल्याण संभव है इसके बाद नहीं । अथवा आगामी कालचक्र के चौथे काल में पुनः अवसर मिल सकेगा किन्तु तब यह जीव कहाँ किस पर्याय में होगा । अतः विचार कर लें। पृ० 364.. 79. गर्भपात का निषेध – सूतक पातक का प्रतिषेध- आज घर-घर में गर्भपात प्रारम्भ हो गया है। कसाई के घर का पानी पीना निषिद्ध है तब अपनी ही संतान के टुकड़े-टुकड़े करवाने वाले के घर कैसे आहार-पानी लिया जा सकता है। जब तक वह प्रायश्चित नहीं लेता है सूतक का दोष है। आजकल सूतकपातक व्यवस्था का भी निषेध कतिपय लोग करने लगे हैं यह आगम विरूद्ध है। सूतक पातक केवल चरम शरीरी, तद्भव मोक्षगामी या त्रेसठशलाका पुरुषों को नहीं लगता शेष सभी को लगता है। तिलोप्य पण्णति मूलाचारादि ग्रंथों में यह व्यवस्था है अतः पालनीय है। पृ० 365 80. गुरुपास्ति/साधु सेवा की प्रेरणा- हमने तीर्थंकर महावीर को प्रत्यक्ष नहीं देखा किन्तु उनकी मुद्रा आज भी विद्यमान है। अतः महावीर मुद्रधारी जब नगरघर-द्वार पर आवे तो अवश्य गुरुपासना – आहारादि दानकर घना आनन्द ले लेना । जड़ रत्नों का घड़ा घर में मिलने पर छिपायेगा और रत्नत्रय 'धारी' के आने पर दूसरे को प्रेरित करेगा । यह अभागापन है। जड़ रत्न तो किसी भी काल में कहीं भी मिल जायेगें किन्तु रत्नत्रयधारी केवल 2 ही काल (चतुर्थ पंचम) में ढाईद्वीप में ही मिलेगें। पृ० 366 81. स्वरूप सम्बोधन की रटना नहीं- घटना घटायें-निज पर पहिचानें-निजात्मा को निजात्म से समझाना/सम्हालना ही स्वरूप सम्बोधन है। निर्वाण स्वरूप सम्बोधन की रटना मात्र से नहीं, अनुभव रूप घटना से ही होगा। श्रेणी(238) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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