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________________ आत्महित सर्वोपरि है। आचार्य कल्पश्रुत सागरजी श्वेताम्बर थे, दिगम्बरत्व धारण किया, निमित्त ज्ञानी आचार्य विमल सागर जी से जीवन अल्प जान कर समाधि में संलग्न हो गये। केवल उपदेश- वार्ता नहीं की। इन्द्रियों से धर्म साधन इष्ट है भोग नहीं। 'इष्टसार समुच्चय' से जीवन क्षणिक जानकर आत्महित ही सोचें ।पृ० 345 73. पुण्यक्षीणता अनर्थकारी है- 'प्रक्षीण पुण्यं विनश्यति विचारणं' पुण्यक्षीण वाले का विचार भी क्षीण हो जाता है। कर्मोदय ज्ञानी-अज्ञानी सभी के आता है। 'यथागति तथा मति' के अनुसार दुर्गति होने वाले की बुद्धि भी खोटी हो जाती है। मति सुमति हो तो सुगति होती है। परिणामों का संक्लेषित होना पर सापेक्ष नहीं स्वसापेक्ष है। किसी का अहित नहीं सोचे, न करें और न बोलकर पुण्य क्षीण करें |शत्रु के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखें । पृ० 348-349 74. प्रवचन सभा- नाट्यसभा का अंतर तथा निमित्तातीत बनें- मोक्षमार्गोपदेष्टा प्रवचन सभा में वस्तु तत्त्व की व्याख्या करें। श्रोताओं को खुश करके ताली नहीं बजवायें । प्रवचन सभा में चेहरा नहीं मन मुस्कराता है। नाट्यशाला में मन नहीं चेहरा मुस्कराता है। प्रवचन सभा मनोरंजन की सभा नहीं है। हम निमित्तों मात्र में संलग्न नहीं हो, निमित्तातीत बनें । निर्मोही होने का पुरूषार्थ करें । मोह बढ़ाने वाले हेतुओं से हटते रहें। कुसंगति के संयोग से अहित होता है। इसलिए निमित्तातीत बनें । पृ० 354 75. पराधीनता त्याग स्वाधीनता पहिचानें- पिंजरे में कैद तोता पराधीनता त्याग स्वतंत्र होने के लिए पिंजरे को सजाता नहीं है। मोक्ष पाने के लिए शरीर रूप पिंजरे को सजाना छोड़ दें।खूटी से बंधा बैल स्वतंत्र होना चाहता है। मनुष्य तो बिना रस्सी - बिना खूटे के, बिना पूंछ के, बिना सींग के बैल है। पराधीनता के · दुःख को त्याग कर स्वाधीनता के सुख प्राप्ति का पुरुषार्थ करें । पृ० 359-360 76. ध्रुव मिथ्यात्व एवं व्यवहार धर्म में अन्तर- परिजन – पुरजनों को अपना मानकर देह बुद्धि करना, बहिरात्मपना ही ध्रुव मिथ्यात्व है। अथवा परद्रव्य में निजद्रव्यता की अनुभूति मान्यता घोर मिथ्यात्व है। किन्तु आपस में वात्सल्य भाव रखना व्यवहार धर्म है। यथार्थतः रागादि भाव ही तेरे नहीं तब जिनमें रागादि भाव किया जा रहा है वे कैसे तेरे हो सकते हैं। पुण्य-पापोदय भी आत्मद्रव्यं नहीं आश्रव है।पृ० 360-361 स्वरूप देशना विमर्श 237 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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