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यंत्र-मंत्रादि फेल हो जाते हैं तब वीतराग वाणी का तंत्र प्रारम्भ होता है और प्रतिफल स्वरूप सिंह-गाय एक घाट पर पानी पीते हैं। समवशरण में तिर्यन्च -
मनुष्य - देवगति के एक साथ जिनदेशना श्रवण करते हैं। पृ० 287 56. हम विद्याजीवी बने न कि श्रुतजीवी- श्रुत से आजीविका वालों को आचार्यश्री ने
आगाह किया है कि हम विद्यार्जन करे किन्तु श्रुतजीवी नहीं बने। जिनवाणी भाग्यवती-भोगवती नहीं योगवती है। सरस्वती/जिनवाणी को कंठ में धारण करना- किन्तु संसार के भोग में उपयोग मत करना । अर्थात् जिनवाणी बेचना नहीं | गणधर की गद्दी का महत्व समझना, हाँ समाज भी विद्वानों का समुचित
सत्कार- सरंक्षण करे ।पृ० 290 57. श्री बाहुबली मस्तकाभिषेक और 250 पिच्छिओं का मिलन- सन् 2006 के
मस्तकाभिषेक श्री बाहुबली के पादमूल में 250 पिच्छियाँ देखकर भाव-विभोर हो गया यह रागियों की नहीं वीतरागियों की भीड़ थी, जिसे देखकर भद्रबाहु आचार्य के 12000 हजार 24000 साधुओं के मिलन का स्मरण आया है। वीतरागियों को वंदन करने से चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होता है। उन्होंने
क्षेत्र में नहीं संयम में रति की है। पृ० 294 58. भट्टारकों द्वारा श्रुत संरक्षण-श्लाघनीय कार्य- श्रमण संस्कृति के संरक्षण में
दक्षिण भारत स्थित भट्टारक परम्परा का योगदान श्लाघनीय है। यद्यपि उत्तर भारत तीर्थंकरों की जन्मभूमि है निर्वाण भूमि भी है तथापि आचार्य भगवन्तों को जन्म देने वाला, जिनवाणी का संरक्षण देने वाला, बहुमूल्य रत्नमयी जिनबिम्बों का संरक्षण दक्षिण भारत में ही हुआ है। भद्रबाहु आचार्य सहित 24000 साधुओं का संरक्षण दक्षिण में ही हुआ है। श्रवणबेलगोला चन्द्रगिरी पर्वत पर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य की सल्लेखना हुयी, शिष्य चन्द्रगुप्त ने कर्तव्य पालन करते हुए संरक्षण किया जो कि स्तुत्य है| पृ०
295-297 . 59. श्रुत क्या-पूर्व मनीषियों का स्मरण – श्री के सदुपयोग की प्रेरणा- श्री जिनेन्द्र
देशना परम्परा से प्राप्त है। व्यक्ति का निजी विचार श्रुत नहीं है, श्रुतानुसार विचार/ सोच होना चाहिए | पं० श्री टोडरमल जी, पं० श्री बनारसी दास जी आदि मनीषियों का भी क्षयोपशम श्रेष्ठ था, उन्होनें निर्ग्रन्थों का दर्शन नहीं किया तथापि वे अभाव में भी सद्भाव देखते थे। श्रुत/जिनदेशना के अवर्णवाद में अपनी श्री का दुरूपयोग मत करना । केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव का
स्वरूप देशना विमर्श
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