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________________ 33. स्वयं का पुण्य-पाप फल ही भोक्तव्य होता है- परिवार के लिए कर्मों का परिवार पुण्योदय में ही सुख से जी सकता है या जिला सकता है, पापोदय में न जी सकता है न जिला सकता है। संरक्षित भी चला जाता है। चक्रवर्ती का पुण्य स्वयं के लिए चक्ररत्न का उपयोग उसके बेटे के लिए नहीं । पुण्य-पाप की व्याख्या मोक्ष प्राप्ति के प्रर्वतक हैं। अरिहंत अवस्था तक कर्मोदय रूप 11 परीषह . होते हैं। ये कर्म किसी को नहीं छोड़ते हैं । पृ० 207 34. पाप को पाप मान लें तो पाप से छूट जायेगें - प्रायश्चित सहित पाप को पाप मानने से पाप से छूट सकते हैं। पाप और पर्याय में संतुष्ट नहीं होना, नींद दर्शन मोहनीय कर्मोदय में आती है किन्तु साता का उदय हो, असाता में नींद नहीं आती, नींद न आने पर स्वाध्याय / चिन्तन प्रारम्भ कर दें अर्थात् पापोदय में पुण्य कार्य कर लें। आनंद से सोने के लिए चिन्ताकारी 'सोना' छोड़ दें। निष्परिग्रही बनें। पुण्योदय में मुनि बिना कमाये दो हाथ से खाते हैं। पापोदय में कमाने वाले को पत्नी एक हाथ से भी नहीं खिलाती है। पृ० 211-213 35. प्रमाद की परिभाषा - "कुशलेषु अनादराः प्रमादः " जो कुशल क्रिया में अनादर भाव है वह प्रमाद है। कुशल क्रिया अर्थात् आत्मा को पवित्र करने वाली पुण्य क्रिया उसमें आलस्य ही प्रमाद है | शुद्धि विधि पूर्वक दातादि देना वही पुण्य सम्यग्दृष्टियों में उत्पन्न करेगा अन्यथा अशुद्धि पूर्वक की गयी दान पूजादि भवनत्रिक में ही ले जायेगा । पृ० 216 36. भव्य-अभव्य-दुरानदूर भव्य का सोदाहरण स्वरूप- सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होने की सामर्थ्य वाले को भव्य और इससे परे को अभव्य तथा जिसमें योग्यता तो है किन्तु उसे निमित्त नहीं मिलेंगे उसे दूरानदूर भव्य कहते हैं। तीनों के क्रमशः उदाहरण यह है: पति व पुत्रत्व शक्ति युक्त, वन्ध्या स्त्री, विधवा स्त्री अथवा ठर्रा मूंग जो कभी नहीं पकेगी। पृ० 219 37. वक्ता के 3 भेद व आगम क्या - सर्वज्ञ देव, गणधर देव और आचार्य देव, ये 3 ही वक्ता हैं। शेष उपदेशक जो भी कहे इन्हीं के अनुसार कहें । उपदेश देने वाला 28 मूलगुणधारी तथा उपदेश सुनने वाला अष्ट मूलगुणधारी हो । उत्तम वस्तु को उत्तम पात्र की आवश्यकता है। दूध को रखने हेतु योग्य पात्र की आवश्यकता है अन्यथा विकृत हो जायेगी । "आप्त वचनानिदिकन्धनमर्थज्ञानमागमः।" जो आप्त 18 दोषों से रहित, सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी है उनका वचन ही आगम है | पृ० 220 228 Jain Education International For Personal & Private Use Only - स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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