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________________ साधु को जिन शासन में भगवान कहा है- “भिक्खं वक्कं हिययं सोधिय जो . चरदि णिच्च सो साहू। एसो साद्दिट्ट साहू भणिओ जिणसासणे भयवं || 1006 || मूलाचार 29. श्रमणों का वात्सल्य- लोकापवाद- श्रमणों के अवर्णवाद विषयगत आचार्यश्री विद्यासागर जी ने मेरे से (आचार्य विशुद्ध सागर जी) भोजपुर में कहा कि ये लोक जिनदेव का नहीं हुआ, अपना क्या होगा, समय परिवर्तनशील है, स्वर्ण-रजत-कांसा-तांबा-लोहा धातुयें क्रमानुसार श्रेष्ठ/त्याज्य हैं आज स्टील रूप/लौह धातु में भगवान का न्हवन, पूजन, श्रमणों का आहार हो रहा है। इसलिए निकृष्टता आ रही है। पाप की डिबिया मोबाईल त्याज्य है। पृ० 199-200 30. वैय्यावृत्ति कैसे- पदमपुराण रविषेणाचार्य से, आभूषण कैसे- महापुराण जिनसेन से- प्रसंगवश स्वरूपदेशना में उक्त दोनों संदर्भो का उल्लेख है कि वैय्यावृत्ति/मालिशादि कैसे करना, कैकई की तरह तथा हार-मुकुटादि आभूषण कैसे पहिनना चाहिए यह प्रसंग महापुराण- जिनसेनाचार्य से समझें। पृ० 201 31. वस्तु व्यवस्था में स्यावाद - नयविवक्षा- एक निश्चय को भूतार्थ, दूसरा अभूतार्थ कहता है। इसी प्रकार व्यवहार को भूतार्थ-अभूतार्थ कहता है संसारी जीव "भूतार्थ-बोधविमुखः” भूतार्थ के बोध से ही विमुख है। संसार को सत्यार्थ जानने वाले गिने चुने लोग ही हैं। विषय को बोलना और समझना भिन्न-भिन्न है। स्वस्थ व्यक्ति के लिए घृत पसन्द होने से भूतार्थ है अस्वस्थ/पाचन शक्ति कमजोर वाले के घी अभूतार्थ है।बहि प्रमेय की दृष्टि से पदार्थ सम्यक्-मिथ्या है भाव प्रमेय से पदार्थ जैसा है वैसा ही है। अर्थात् मात्र जानने योग्य है। पृ० 203 32. कर्म सिद्धान्त प्रबल है-कनकोदरी रानी ने जिन प्रतिमा को ईर्ष्या के आवेग में 22 घड़ी तक छिपाया फल भोगना पड़ा, तीर्थंकरों को भी कर्मों ने नहीं छोड़ा, देखो-जिनका पुत्र चक्रवर्ती हो, वे स्वयं सृष्टि के सृष्टा हों, गर्भागम से छ: माह पूर्व रत्नवृष्टि प्रारम्भ हुयी, इन्द्र किंकर बनकर सेवा में रहा षट कर्म व्यवस्था के जनक, आदीश्वर को भी बैलों को मुसिका लगवाने से सात माह तक क्षुधा से पीड़ित होना पड़ा। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री उच्चपदासीन हैं किन्तु न्यायालयगत व्यवस्था उनसे भी सर्वोच्च है। पृ० 204-205 स्वरूप देशना विमर्श (227) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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