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38. श्रावक कर्तव्य तथा अभिषेक के भेद तथा मौन कहाँ नहीं?
दान-पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। निष्प्रयोजनी इसका निषेध करते हैं। श्रावकों के साथ विद्वानों को भी ये षटक्रियायें करणीय हैं। कोरा ज्ञान कार्यकारी नहीं है। दान-पूजादि सम्यक्त्व की क्रिया है। आगमोक्त त्रिविध अभिषेक हैं-जन्माभिषेक-जन्म पश्चात्- बाल तीर्थंकर का, दूसरा-तीसरा राज्याभिषेक व दीक्षाभिषेक भी तीर्थंकरादि की किन्तु चौथा प्रतिमाभिषेकजिनबिम्बों का होता है एवं जहाँ धर्म-क्रिया का नाश होता है वहाँ मौन रहने वाले मुनि को भी मौन छोड़कर बिना पूछे ही बोलना चाहिए | धर्म रक्षा करना चाहिए यथा- “धर्मनाशे क्रिया ध्वसे सुसिद्धान्तार्थ विप्लवे/अपृष्ठैरपि वक्तव्यं
तत्स्वरूप प्रकाशने ॥ ज्ञानार्णव-15 (पृ० 221-222) 39. परमसत्यार्थ दशा प्ररूपणा- वस्तुतः जगत में कोई सुख-दुख दाता नहीं है।
निमित्ताधीन दृष्टि से संक्लेशता व हास्यादि काषायिक भाव उद्भव होते हैं। 9 कषाय संक्लेशता रूप ही हैं। साम्यभाव के अभाव में ही संक्लेशता है। (पृ०
227-228) 40. आचार्य शांतिसागर जी के संरक्षण में आचार्य आदि सागर की जी समाधि
पूर्वाचार्यों में परस्पर वात्सल्य था किन्तु आज काषायिक भाव दृष्टिगोचर हो रहा है। ऊदगांव में जब आदि सागर जी की समाधि चल रही थी तो निर्यपकाचार्य आचार्य शांतिसागर जी थे एक और आचार्य थे गोरेगांव के वे इनकी समाधि मरण को देखने आये थे, किन्तु परिणामों की ऐसी विशुद्धि बनी कि एक साथ दो हंस आत्मायें देवलोक को प्राप्त हो गयी इनकी दो समाधियाँ वहाँ बनी हैं। वह इन आत्माओं की परस्पर परिणामों की पवित्रता अनुकरणीय
है। पृ० 242 41. मुक्ति प्राप्ति का अंतरंग - बहिरंग उपाय- मुक्ति प्राप्ति का अन्तरंग उपाय
कषाय की मंदता और परिणामों की विशुद्धि है तथा बहिरंग उपाय निर्ग्रन्थ मुद्रा-पिच्छि कमण्डल है। इनके बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। ज्ञान मात्र
कार्यकारी नहीं चरित्र भी अंगीकार करना पड़ेगा। पृ० 247 42. यथामति तथा गति/यथा गति तथा मति- दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दुर्गति
जाने वाली की मति भी विपरीत रूप हो जाती है और जिसकी सुगति होने वाली है उसकी मति विपुलमति, विमलमति, विशुद्धमति होती है। जीव मात्र के
स्वरूप देशना विमर्श
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