________________
कारिका-15 “तदेतन्मूलहेतोः स्यात्कारणं..... बहिरंगकम् ॥
अन्तरंग साधनसिद्धि में बाह्य साधन भी अनिवार्य है। कारिका-16 “इतीदं सर्वमालोच्य..... रागद्वेषविवर्जितम् ॥
निजात्म भावना को आत्मसात् करने की प्रेरणा। कारिका-17-18 “कषायैःरंजितं..... तत्वचिन्तापरो भव ॥ - रागद्वेष के साथ आत्मस्वरूप का चिन्तवन करने से दोष व तत्वज्ञानी की प्रवृत्ति। कारिका- 19-20 “हेयोपादेय तत्त्वस्य.... शिवमाप्नुहि ॥
स्वरूप निष्ठा कैसी हो एवं शिव प्राप्ति का सहज उपाय। कारिका-21-22 “तथाप्यति तृष्णावान.... न क्वापि योजयेत्॥
निजात्म प्राप्ति की मात्र तृष्णा नहीं, भावना मात्र नहीं, क्रियान्वयन करें। कारिका-23-24 “सापि च..... तिष्ठ केवले ॥ मध्यस्थ भाव स्वाधीन या पराधीन तथा शीघ्र शिवगामी बनने के उपाय। कारिका-25-26 “स्वः स्वं स्वेनं. पदम ||25 ॥ इति स्वतत्वं...पञ्चविंशतिः॥ 26 ॥
अभिव्यक्तरूप सात विभक्तियों के ध्यान से परमानंद प्राप्ति एवं अंत मंगल भावना॥ 2. भव्यजीवों को सम्बोधन शब्दावली- मूलग्रंथ स्वरूप सम्बोधन पर स्वरूप देशना के टीकाकार आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी विवेचना काल में भव्य जीवों के लिए आत्मीयता पूर्ण जिन सम्बोधनों की प्रस्तुति की है वह अनुपमेय है वह कही व्यंगात्मक अथवा कटु प्रतीत होती हुयी भी कल्याणकारी है यथा(1) “ज्ञानी"
पृष्ठ 3- पंक्ति -3 (2) "अरे भैया” पृष्ठ 4- पंक्ति -5 (3) ‘उद्योगपति'
पृष्ठ 8- पंक्ति -20 (4) ‘मनीषियों' पृष्ठ 9- पंक्ति -01 (5) 'मुमुक्षु'
पृष्ठ 11- पंक्ति -24 (6) 'रागियो' पृष्ठ 12- पंक्ति -01 (7) 'लालो
पृष्ठ 3- पंक्ति-3 (8) 'चिडि-चिडियाओ' पृष्ठ 26- पंक्ति -01 (9) 'भूताविष्ठ' पृष्ठ 32- पंक्ति -15
(214
-स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org