________________
विषय-स्वरूप देशना-मेरी दृष्टि में
-प्रतिष्ठाचार्य पं० पवन कुमार जैन
शास्त्री दीवान, मुरैना (म० प्र०) श्रीमत् दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति में आत्मा ही परमात्म पद को प्राप्त होती है। संसारी जीवात्मा अनादिकालीन कर्मों के संयोग सम्बन्ध से जन्म जरा मृत्यु की श्रृंखला में निबद्ध है। यह सम्बन्ध विभाव रूप संयोग सम्बन्ध है। अतः अशाश्वत है। जीव जब स्वभावोन्मुखी होने का सम्यक दिशा में सम्यक पुरुषार्थ करता है तो निश्चित ही अपने शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। ऐसे ही स्वभाव/निजरूप/ स्वरूप को पाने के लिए जैन संस्कृति के महान दार्शनिक/तात्विक/न्यायज्ञाता/ अध्यात्मयोगी आचार्य श्री भट्टाकलंक देव ने स्वरूप सम्बोधन कृति का प्रणयन किया। मूलरूप से 25 कारिका/श्लोक प्रमाण यह लघुकृति अद्वितीय-अनुपम है ऐसी बेजोड़ सारभूत ज्ञानोदधि ग्रंथ पर इक्कीसवीं सदी के विलक्षण प्रतिभाधारी आचार्य परमेष्ठिन श्री विशुद्ध सागर जी ने अपनी चिन्तन धारा को “गागर में सागर" की सूक्ति को चरितार्थ करते हुए इस अमृत तत्व को 400 पृष्ठों में उड़ेला है। कृति का अक्षरशः आलोढन करने के अनन्तर अपनी लघु प्रज्ञानुसार निम्न बिन्दुओं से ‘स्वरूप देशना- मेरी दृष्टि में एक लाघव प्रयास प्रस्तुत है- आइये जानें श्री जिनदेशना के अमृत तत्व स्वरूप देशना को....... 1. कारिकाओं की शीर्षकावली 2. भव्यजीवों को सम्बोधन शब्दावली 3. सैद्धान्तिक विशिष्ट शब्द एवं जैन शासन के 18 पर्यायवाची 4. विषय विवेचनार्थ संदर्भ – ग्रंथों की नामावली 5. कारिका विवेचनान्त- एक अमृत सूत्र व समागत सूत्रावली 6. स्वरूप देशना के सारभूत संदर्भ 7. उपसंहार 1. कारिकाओं की शीर्षकावली- स्वरूपदेशना ग्रंथगत 26 कारिकाओं की शीर्षक अनुक्रमणिका निम्न प्रकार हैकारिका क्रमांक-1 मंगलाचरण- "मुक्तामुक्तैकरूणो .... नमामितम् ॥
मुक्त के साथ अमुक्त की वंदना क्यों? यदि अमुक्त है तो सिद्ध कैसे है और सिद्ध है अमुक्त कैसे?
(212
-स्वरूपदेशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org