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के बारे में कहते हैं- “हे ज्ञानी! तू अपने भावों को अशुभ नहीं कर रहा है, बल्कि तू अपने भव को अशुभ कर रहा है। कषाय के समय तेरे परिणामों की जो दशा होगी अगली पर्याय की वही दशा होगी। इस महान् ग्रंथ में आत्मा की परम सत्ता का कथन है, अपने स्वरूप को मानव ही नहीं तिर्यंच भी समझते हैं। इसका सटीक उदाहरण आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने आचार्य श्री महावीर कीर्तिजी महाराज जी के साथ हुयी घटना से प्रतिपादित किया है। एक काला नाग आचार्य भगवान् श्री महावीर कीर्तिजी की उंगली को जब अपने मुख में लिए हुए था तो उन्होंने कहा- भैया यदि बैर है तो देर क्यों? और बैर नहीं है तो अंधेर क्यों? यह सुनते ही नाग उंगली को छोड़ कर चला गया। इस बात के कई प्रत्यक्षदर्शी आपको मिल जायेंगे । एक और घटना याद आ रही है जब एक सिंह भी सम्बोधन होने पर अपने को संयमित करके तिर्यंच से भगवान महावीर बन सकता है तो हम क्यों नहीं? अर्थात् यह स्वरूप सम्बोधन स्वयं भी प्रतिपादित हो रहा है। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने यही कहा है कि असिद्ध को सिद्ध करना पड़ता है, सिद्ध को सिद्ध नहीं करना पड़ता है।
राग-द्वेष को आचार्य श्री ने कितनी सरल भाषा में समझा दिया है- “किम् सुन्दरम् किम् असुन्दरम्” जहाँ राग है वह सुन्दर है और जहाँ द्वेष है वह असुन्दर है। इस सूत्र के द्वारा आचार्य श्री ने राग-द्वेष को पहचानने का, मापने का थर्मामीटर ही दे दिया। जब भी इस तरह की भाषा का प्रयोग होता है तो प्रत्येक जीव को लगता है कि यहीं बैठा रहूँ और आनन्द, घनानंद का रसपान करूँ और लगे भी क्यों नहीं? जब जीव अपने में आ जाता है, अपने में उतरने लगता है, तो स्वभाविक ही है कि वह वस्तु स्वरूप को समझने लगता है। यही तो भट्ट अकलंक देव समझाना चाहते हैं और आचार्य श्री की वाणी से और अधिक सरल होता जा रहा है। आचार्य श्री इसे अपने शब्दों में कहते हैं- “हम परोक्ष वाणी तो सुन रहे हैं यह भाग्य है, परन्तु प्रत्यक्ष वाणी नहीं सुन रहे हैं, इसलिए अभागे हैं" क्या अदभुत चिन्तवन है। आगे कहते हैं कि “वस्तु को मत बिगाड़िये, वस्तु को मत बदलिए, अपनी दृष्टि को फेर लीजिए | ध्यान दें कि आचार्य श्री क्या समझाना चाहते हैं? हर विषय में तर्क, तर्क का अर्थ आगम को तोड़ना नहीं है, तर्क से तो वस्तु स्वरूप का निर्णय होता है। स्वभाव पर तर्क नहीं चलता।
आचार्य श्री के प्रवचनों में यह सुनने के लिए तो मिलता ही है- “सबके साथ रहो, सबसे मिलकर रहो पर सबसे मिले न रहो।” यहाँ पर आचार्य श्री अखण्ड जैन शासन की बात कर रहे हैं। सभी से दया भाव, वात्सल्य भाव और सबके कल्याण की भावना रखने के लिए कहते हैं। सम्पूर्ण अखण्ड जैन समाज की बात पर आचार्य श्री कहते हैं- “न दिगम्बर, न श्वेताम्बर, न तारणतरन, न बीस पंथी और न तेरा 198
-स्वरूप देशना विमर्श
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