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आगे आचार्य श्री समझाते हैं कि जिन वचन का श्रद्धान ही प्रवचन का श्रद्धान है। जैसे तीर्थंकर भगवान् के समवसरण में जिन देशना सभी जीवों की समझ में आ जाती थी वैसे ही सरल और रोचक भाषा में स्वरूप देशना सभी के अन्तःस्थल पर एक अमिट छाप अंकित कर देती है। आचार्य श्री कहते हैं जिनालय में भगवान् की भक्ति करने आना और शमशान में वस्तु स्वरूप को समझने जाना । उद्योगपति तो जगत् के बहुत से लोग बन गए, अब उस उद्योग का पति बनना है जिससे उद्योग ही नहीं करना पड़े अर्थात् जन्म-मरण को छेद कर सिद्ध-शिला पर विराजमान हो सके। ___ “आपको स्वरूप संबोधन ग्रन्थ पर श्रद्धान न हो तो विश्वास रखना, सुनने पढ़ने में कोई आनन्द नहीं आएगा। सम्यक्-दर्शन का पहला अंग भी तो श्रद्धान ही है। आचार्य भगवंत लिखने बैठे तो लिख गया, क्या गजब का चिन्तवन है। आगे आचार्य श्री कहते हैं- “जो निज रूप हैं वही जिन रूप हैं। जो निज रूप लख लेगा वो जिन रूप को प्राप्त कर लेगा।” यह ग्रन्थ कितना गहन है, परन्तु आचार्य श्री की देशना सर्व सामान्य के समझ में आ जाती है। ___ ग्रंथ के प्रारम्भ में ही आचार्य श्री भट्ट अकलंक देव स्वामी ने अनेकान्त और स्याद्वाद का श्लोक लिखा है जिसमें भगवान को, सिद्ध भगवान को, मुक्त और अमुक्त भी कहा है। इस न्यायिक, अनेकान्त और सिद्धांत का उदाहरण और सबसे हटकर मौलिक बातों पर जोर देने वाला यह अन्य सभी ग्रंथों से भिन्न है।
देशना में एक सूत्र दिया है- “यो ग्राह्यो ग्राह्य नायंत” इसे और अधिक सरल बनाते हुए आचार्य श्री समझाते हैं कि स्फटिक मणि के सामने जैसा पुष्प आये तो वैसी ही मणि दिखाई देती है, परन्तु पुष्प रूप नहीं होती। ऐसी ही आत्मा है। आत्मा को देखा नहीं जा सकता यह तो अनुभव का विषय है।स्वानुभूति का विषय है।
- 1400-1500 वर्ष पूर्व यह ग्रन्थ न्यायिक, दार्शनिक और सिद्धांत से परिपूर्ण अध्यात्म के सृजेता भट्ट अकलंक देव स्वामी द्वारा रचा गया । आचार्य श्री अमृत चंद्र स्वामी द्वारा रचित “लघु तत्त्व स्फोट' को पहले रशिया के लोगों ने याने रशियन लोगों ने ट्रांसलेट किया और फ़िर हमें पता चला । ऐसी बहुत सी बातों का जिक्र भी है इस महान् देशना में, इस बात पर गर्व होता है कि आज के वैज्ञानिक जो भी वस्तु को प्रमाणित कर रहे हैं वह उनका विषय नहीं है। यह तो जैन दर्शन का ही विषय है। इस बात का प्रमाण तो आपको वैज्ञानिकों के कमरे के बाहर ही मिल जायेगा । वे क्या लिखते हैं? रिसर्च रूम । जो वस्तु पहले सही सर्च कर ली गयी है उसे ही पुनः सर्च करना याने रिसर्च करना।
स्वरूप संबोधन ग्रंथ में जैसी वस्तु व्यवस्था है उस व्यवस्था का आचार्य श्री ने कथन किया है। श्लोक में दूसरे आत्मा के बारे में कहते हैं, अपने भावों के परिणमन स्वरूप देशना विमर्श
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