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________________ स्वरूपदेशना ग्रन्थ की जीवन में उपयोगिता एवं महत्व -पी. के. जैन, कल्याण (मुम्बई) ओम नमः सिद्धेभ्यः। ओम नमः सिद्धेभ्यः|| ओम नमः सिद्धेभ्यः॥ वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है| उस वाणी के अंतर्तम को, जिन गुरूओं ने पहचाना है। . उन गुरुवर्यों के चरणों में मस्तक बस हमें झुकाना है। जगत् में वस्तु स्वरूप की बहुत सी व्यवहारिक व्याख्या मिल जायेंगी, परन्तु अध्यात्मिक व्याख्या स्व एवं पर के कल्याण की भावना से ओतप्रोत यदि है, तो वह है. 'स्वरूप संबोधन' | इस महान ग्रंथ के रचयिता या यों कहें कि श्री जिनदेव की वाणी को हमारे समक्ष रखने वाले 7वीं सदी के प्रसिद्ध आचार्य भट्ट अकलंक देव स्वामी जो न्यायविज्ञ भी हैं और दर्शनविज्ञ भी हैं ऐसे आचार्य का यह महान ग्रंथ है। इस महान ग्रंथ पर परम पूज्य अध्यात्मयोगी चर्याशिरोमणी श्रमणाचार्य श्री 108 विशद्ध सागर जी महाराज की पावन देशना को ही स्वरूप देशना कहते हैं। कहा भी है निर्ग्रन्थ गुरु के ग्रन्थ ये, नित्य प्रेरणाएँ दे रहे। निजभाव अरु पर भाव का, शुभ भेद ज्ञान जगा रहे॥ आचार्य श्री के शब्दों के अर्थों पर ध्यान देना- “अभद्र भी जहाँ समन्तभद्र हो जाते हैं ऐसा है जिनदेव प्रणीत नमोऽस्तु शासन” मेरा यह सौभाग्य है कि मैं जिनदेव प्रणीत नमोऽस्तु शासन में जन्मा हूँ। मैं ऐसे दादाजी पंडित श्री उल्फतरायजी संघई भिंडवाले का पौत्र हूँ जिन्होंने कभी जिन शासन को नहीं छोड़ा । यह मेरा पुण्य था कि ऐसे घर में जन्मा और यह भी पुण्य है कि आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरा यह लेखन सूर्य के सामने प्रदीप / दीये के समान है। परन्तु यह हमारा सौभाग्य है कि धरती के देवता निर्ग्रन्थ तपोधन गुरु के मुखारविंद से श्री जिनवाणी सुनने एवं समझने के लिए तथा आत्मसात करने हेतु हमें मिल रही है, गुरु के पाद मूल में रह कर जो मिलता है वह अन्यत्र नहीं मिलता है। गुरु के प्रकाश के बिना ग्रन्थ नहीं पढ़े जाते हैं। ___ मूल ग्रन्थ के श्लोक संस्कृत भाषा में हैं, परन्तु बहुत से लोग इसे समझ नहीं पाते, परन्तु आचार्य श्री का यह कथन है कि यदि समझ में नहीं आये तो भी पढ़ना । क्योंकि एक-एक वर्ण मंत्र होता है। आचार्य श्री ने अपनी देशना में समझाया है कि कठिन कोई विषय नहीं होता और कठिन कह कर मार्ग नहीं रोका जा सकता है। 196 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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