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________________ पंथी, न सोनगढ़ी, न मौनगढ़ी एक मात्र अखण्ड श्रमण संस्कृति एक ही है। आठवीं गाथा में आचार्य भट्ट अकलंक देव स्वामी ने मूल सिद्धान्त स्याद्ववाद् पर जो कहा है उस पर आचार्य श्री का चिन्तवन, कथन हमें ग्रहण करने योग्य है। आगे समझाते हुए कहते हैं- एक गुरू के दो शिष्य, एक की पूजा और दूसरे की आलोचना हो रही है। गुरु का क्या दोष? सब कर्मों का ही विपाक है। किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता है। दोष देंगे तो विकल्प आयेगा और विकल्प से नवीन कर्मों का बंध होगा | अतः साम्यभाव को अपने अंतर में विराजमान कर लो, ज्ञानी स्वतःही निर्दोष परमात्मा को प्राप्त कर लेगा। इस महान ग्रन्थ की नौवीं और दसवीं गाथा में सिद्धान्त सूत्रों का वर्णन है। दसवीं गाथा में जीवन की सफल साधना का फल अर्थात् समाधिमरण पर बहुत सरल भाषा में आचार्य श्री समझाते हैं। “हे स्वामी! आपने भी साधु समाधि की थी, तभी तो आप तीर्थेश पद को प्राप्त हुए । तीर्थंकर -प्रकृति की बंधक सोलहकारण भावना में साधु समाधि भी एक भावना है और पूजा में कहा भी है गुरु आचारज उपझाय साध, तन नगन रत्नत्रय निधि अगाध। संसार देह वैराग्य धार, निर्वान्छी तपे शिव पद निहार॥ ग्यारहवीं गाथा में कर्म सिद्धान्त पर जोर दिया है। शिक्षा ग्रन्थ मात्र से नहीं होती, निर्ग्रन्थों को देखने से अधिक होती है, क्योंकि ग्रंथों की शिक्षा प्रैक्टिकल नहीं है और निर्ग्रन्थों की शिक्षा प्रैक्टिकल होती है जैसा कि कहा भी है समयसार जिन देव हैं, जिन प्रवचन जिनवाणी। नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें सब कर्म की हानि॥ समयसार व स्वरूप संबोधन ग्रन्थ में कोई अन्तर ही नहीं दिखाई दे रहा है। अंतर होगा भी क्या? जो आत्मा जैसी है वैसी ही है। आचार्य भगवन अकलंक स्वामी ने जैसा आत्मा के सत्यार्थ स्वरूप को समझाया है वैसा ही आचार्य श्री ने हमको समझाया है। जो तत्त्व है वह वस्तु का स्वभाव है। स्वभाव को भीतर जाकर ही प्राप्त करना पड़ता है, बाहर से नहीं मिलता स्वभाव। जीवन को सफल बनाने का मंत्र भी देते हैं। जीवन है तो सुख-दुःख, रोग-शोक तो रहते ही हैं। आचार्य श्री कहते हैं – “जिनेन्द्र के वचन ही परम औषधि है। वो जन्म-मरण का क्षय करने वाले हैं। सम्पूर्ण व्याधियों को हरने वाले हैं। कर्म सिद्धान्त को छोड़कर ज्योतिषी की बातों में आने वाले लोगों के लिए आचार्य श्री कहते हैं- हे ज्ञानी! तेरा शनि उतरे या न उतरे, पर शनि उतारने वाले का अवश्य उतर जाता है। जिन शासन लाग-लपेट वाला नहीं है, यही वस्तु स्वरूप है। .. स्वरूप देशना विमर्श 199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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