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पूज्य आचार्य श्री ने ‘स्वरूप देशना' टीका में चार शब्दों का प्रयोग किया है। भूताविष्ट, मोहाविष्ट, भैसाविष्ट तथा भेषाविष्ट, आविष्ट शब्द का अर्थ यदि हम आप्टे संस्कृत हिन्दी कोश में देखते हैं तो वहाँ लिखा है आविष्ट' – प्रभावित, अर्थात् जिस व्यक्ति के ऊपर मोह सवार है अर्थात् जो मोह के द्वारा प्रभावित है। उसे मोहाविष्ट कहते हैं तथा जिसके ऊपर भूत सवार हो गया है अर्थात् जो भूत से प्रभावित है उसे भूताविष्ट कहते हैं इसी प्रकार चारों शब्दों का हिन्दी अर्थ समझना चाहिए | अब इन शब्दों पर विशेष रूप से विचार किया जाता है। ... 1. भेषाविष्ट- आचार्य भद्रबाहु स्वामी के द्वारा, दुर्भिक्ष पड़ने पर, दक्षिण की ओर प्रस्थान कर देने पर जो मुनि संघ उज्जैनी में रह गया था, उसने दुर्भिक्ष के कारण अपना भेष भी बदल दिया था। परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने वस्त्र तथा लाठी आदि को स्वीकार कर लिया था और फिर भी वे अपने आपको भगवान् महावीर की आज्ञानुसार चलने वाला मानते थे। ऐसे साधुओं को आचार्य जी ने भेषाविष्ट कहा है। वर्तमान में भी यह परम्परा खूब विकसित देखने में आ रही है। यह भेषाविस्ट मोहविष्ट ही है। 2. भैंसाविष्ट- इस शब्द का वर्णन आचार्य कुन्दकुन्द महाराज द्वारा रचित "समयसार' ग्रन्थ की 96वीं गाथा की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द स्वामी तथा आचार्य जयसेन महाराज दोनों ने ही इस शब्द का प्रयोग किया है। उनकी टीका के अनुसार जिस प्रकार भैंसा आदि का ध्यान करने वाला जीव, भैंसा आदि में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ, उसे भुलाकर भैंसे का ध्यान करते समय, "मैं मैंसा हूँ' इत्यादि आत्म-विकल्पों को करता हुआ अपने को उसी रूप में मानने लगता है। ध्यान करते हुए वह सोचने लगता है कि मैं भैंसा हूँ मेरे सींग बादल को स्पर्श करने वाले बड़े-बड़े हैं, जबकि इस कुटी का द्वार छोटा है, अत:मैं यहाँ से कैसे निकल सकूँगा । वह उसकी दृष्टि में भैंसा है। यह स्पष्ट आभास होने लगता है और अपने आत्म स्वरूप से च्युत हुआ भैंसाविष्ट कहलाता है। 3. भूताविष्ट- समयसार ग्रंथराज की गाथा नं0 96 की टीकाओं में जिस व्यक्ति को भूत आदि ग्रह लग गया हो उसे भूताविष्ट कहा है। ऐसा जीव भूत में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ मनुष्य से न करने योग्य ऐसी बड़ी भारी शिला उठाना आदि आश्चर्यजनक व्यापार को करता हुआ दिखाई देता है। उसे अपने स्वरूप का परिचय नहीं रहता है। 4. मोहाविष्ट- इस शब्द के बारे में पूज्य आचार्य श्री ने श्लोक नं0 12 की टीका में बहुत कुछ लिखा है। पूज्य आचार्य श्री के अनुसार जो मोह से प्रभावित है वे मोहाविष्ट (188)
-स्वरूप देशना विमर्श
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