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कहलाते हैं। मोह के दो भेद हैं- मिथ्यात्व और कषाय । जो जीव मिथ्यात्व से प्रभावित होकर निज और पर के स्वरूप में भेद नहीं करते, शरीर को ही अपना स्वरूप मानते हैं। वे मिथ्यात्व रूप से मोह से प्रभावित हैं। इसके अतिरिक्त जो राग द्वेष से प्रभावित हैं अर्थात् कषायों में डूबे हुए हैं वे कषायाविष्ट हैं और उनको भी मोहाविष्ट ही कहा जाता है।
उपरोक्त चारों प्रकार के व्यक्तियों में से हमको मुख्य रूप से भूताविष्ट तथा मोहाविष्ट पर विचार करना है। पूज्य आचार्यश्री ने ‘स्वरूप देशना' टीका में कहा है कि भूताविष्ट का भूत तो उतारा जा सकता है, उसको उतारने के बहुत से साधन तथा मंत्र आदि का प्रयोग वर्तमान में होते हुए हम सब देखते हैं। और उनसे भूतों का प्रभाव समाप्त भी हो जाता है, परन्तु जो मोहाविष्ट है उनके मोह को उतारना अत्यन्त कठिन है। यह अज्ञानी जीव जिनसे मोक्ष मिलता है तथा जिनसे मोक्ष-मार्ग मिलता है, उनमें मोह कर लेता है जबकि मोह मोक्ष का कारण न होकर संसार का कारण है। पूज्य आचार्य श्री ने स्पष्ट कथन किया है कि पंच परमेष्ठी की भक्ति तो परम्परा से मोक्ष का साधन है, लेकिन पंचपरमेष्ठी का मोह परम्परा से भी मोक्ष का कारण नहीं है। सम्यकदृष्टि जीव परमेष्ठी के पाद्मूल में अनुराग रखता है जबकि रागी जीव मोह रखता है राग में और वात्सल्य में अन्तर है। जो निरपेक्ष भाव से भक्ति के परिणाम हैं उनका नाम वात्सल्य है जबकि अपेक्षा सहित जो राग वृत्ति है उसका नाम राग है।
धर्मात्मा में राग नहीं होता उसमें तो वात्सल्य होता है। वह भगवान की पूजा आराधना तो करता है, परन्तु उसके चित्त में कोई मनोकामना या कुछ माँगने का भाव नहीं होता । हम सभी मोहाविष्ट हैं। कितनी ही धार्मिक चर्चा सुनें, हमारे गुरुदेव हमें समझाने के लिए कितना ही परिश्रम क्यों न करें, परन्तु फिर भी हम इतने मोहाविष्ट हैं, हम पर इतना मोह का प्रभाव है कि अपने शुद्ध आत्मस्वरूप एवं काम-क्रोध आदि विभाव परिणामों में जो भेद हैं उस पर पूरी श्रद्धा रखते हुए जीवन में नहीं उतारते । यदि इसी प्रकार हमारी वृत्ति रही तो हमारा इस पर्याय को प्राप्त करना व्यर्थ हो जायेगा। . . .
पूज्य आचार्य श्री ने मोहाविष्ट आत्मा के गुणस्थानों की चर्चा भी, श्लोक नं0 12 के प्रवचन में की है जिसके अनुसार मोहाविष्ट के गुणस्थान 1 से 10 तक हैं, क्योंकि 11वें गुणस्थान में मोहनीय का सम्पूर्ण उपशम हो जाता है, 12वें गुणस्थान में वे ही मुनिराज प्रवेश करते हैं जिनका मोहनीय नष्ट हो चुका होता है। अतः इन दोनों गुणस्थानों में विराजमान आत्मा मोहाविष्ट नहीं है। 13वें 14वें गुणस्थान वर्ती अरहन्त भगवान तो 4 घातिया कर्म रहित होने से मोह रहित हैं ही। स्वरूपदेशना विमर्श
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