________________
'मोहाविष्टएवं भूताविष्टपर एक दृष्टि
-हजारी लाल जैन, आगरा आचार्य अकलंक देव द्वारा विरचित ‘स्वरूप संबोधन' पर पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज द्वारा प्रवचनों के माध्यम से सम्पादित 'स्वरूप देशना' टीका के श्लोक नं0 12 के प्रवचनों में भूताविष्ट तथा मोहाविष्ट इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। इन्हीं शब्दों के प्रयोग पर मेरे इस लेख में विचार किया जायेगा। स्वरूप सम्बोधन का 12वां श्लोक इस प्रकार है
यथावद्वस्तुनिर्णीतिःसम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत्।
तत्स्वार्थव्यवसायात्मा कथंचित्प्रमितेः पृथक्॥ अर्थ- ज्यों का त्यों वस्तु का निर्णयात्मक ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है, वह (सम्यग्ज्ञान) दीपक के समान, अपने एवं श्रेयभूत पदार्थ के निश्चयात्मक ज्ञानरूप होता है, प्रमिति से, कथंचित भिन्न भी होता है। . उपर्युक्त श्लोक में यद्यपि आचार्य अकलंक देव ने भूताविष्ट एवं मोहाविष्ट शब्द का प्रयोग नहीं किया है। परन्तु पूज्य आचार्य श्री को 'समयसार' ग्रन्थराज अत्यन्त प्रिय हैं और प्रिय हो भी क्यों नहीं, क्योंकि द्रव्यानुयोग में यह 'समयसार' नाम का ग्रन्थ अनुपम है। पूज्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द महाराज ने अपने जीवन में जो कुछ महान् शास्त्राभ्यास से प्राप्त किया, जो कुछ अपने गुरूदेव से उपदेश रूप से प्राप्त किया तथा अन्य विभिन्न दर्शन वालों को वाद-विवादों द्वारा जीत कर निज आत्म वैभव का जो अनुभव प्राप्त किया, उस आनन्दामृत को इस ग्रन्थराज में उड़ेल दिया है। सच तो यह है कि आत्मस्वरूप का जो अदभूत विवेचन इस ग्रन्थ में है वैसा किसी अन्य ग्रंथ में है ही नहीं। इसलिए तो प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य सागर वाले कहा करते थे कि मैं इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद दावे से कह सकता हूँ कि जिसने इस ग्रंथराज समयसार का अध्योपान्त स्वाध्याय, चिंतन और अवधारण न किया हो उसे कभी भी सम्यकत्व की निर्मलता हो ही नहीं सकती है।
पूज्य आचार्य श्री को समयसार ग्रन्थराज अत्यन्त प्रिय है। जिसके कारण ‘स्वरूप सम्बोधन' ग्रंथ के श्लोक नं0 12 में भूताविष्ट और मोहाविष्ट शब्द का प्रयोग न होते हुए भी, इन श्लोक के प्रवचन में उन्होंने इन दोनों शब्दों का तथा इसी प्रकार के ही अन्य शब्दों का प्रयोग ग्रन्थराज समयसार के आधार पर किया है। इन सभी शब्दों पर हमको दृष्टिपात करना है।
स्वरूप देशना विमर्श
-(187)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org