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अग्राह्य है और ज्ञान के द्वारा जानने योग्य है अतः ग्राह्य है। यह परमात्मा शक्ति रूप से अनादि और अनन्त है। यह जीवात्मा अपने स्वरूप से कभी नष्ट नहीं होता। अतः स्थिति (धौव्य) स्वरूप है। प्रतिक्षण पर्याय रूप से परिवर्तन करता है। अतः उत्पत्ति तथा व्ययात्मक है। इस प्रकार आत्मा अनादि, अनन्त स्वरूप बतलाकर उसकी अविनश्वर, अकृत्रिम सत्ता का बोध कराया है। आत्मा में चेतन -अचेतन रूप अवस्था की विवेचना करते हुए आचार्य भगवन्त ने लिखा है
प्रमेयत्वादिभिर्धमैरचिदात्मा चिदात्मकाः।
ज्ञान दर्शन तस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकाः॥3॥ अर्थात् आत्मा प्रमेयत्वादि धर्मों के द्वारा अचेतन रूप है और ज्ञान दर्शन रूप उपयोगात्मक होने से चेतन स्वरूप है इसलिए चेतन एवं अचेतन दोनों एक साथ होने से चेतना-चेतनात्मक है।
यहाँ पर स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंक देव ने उल्लेख किया है कि प्रत्येक द्रव्य में अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरूलघुत्व ये छ: सामान्य गुण पाये जाते हैं। ये छः गुण सामान्य हैं। जो जीव अजीवादि छः द्रव्यों में पाये जाते हैं अतः अचेतन स्वरूप है। उक्त गुणों की अपेक्षा जीवद्रव्य कथञ्चित, अचेतनात्मक है। ___ आचार्य अकलंक देव ने स्वरूप सम्बोधन के परिप्रेक्ष्य में आत्मा के स्वरूप का विभिन्न रूपों में कथन किया है, क्योंकि वस्तु अनेक धर्मात्मक रूप है तथा जिसमें गुण पर्यायें वास करती हैं। इसलिए आत्मा की सिद्धि ज्ञान से भिन्न और अभिन्न भी है। आत्मा स्वदेह प्रमाण वाला है। आत्मा नाना स्वभाव वाला भी है और एक स्वभाव वाला भी है। वक्तव्य भी है अवक्तव्य भी है। आत्मा विधि निषेधात्मक वाला भी है। अस्ति, नास्ति, एक, अनेक, भेद, अभेद, वाच्य, अवाच्य आदि वस्तुगत अनेक धर्मों के समुदाय वाला भी है। कर्मों का कर्ता होने से आत्मा कर्ता भी है।
आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञातव्य है कि प्रत्येक द्रव्य में अभिन्न रूप से निरन्तर षट् कारक होते हैं। उस षट्कारक व सप्तविभक्ति के द्वारा आत्मा का ज्ञान कराने के लिए अकलंकदेव ने अभिन्न कारक का कथन किया और उसके फल को बताया। लिखा है
स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्याविनश्वरं।
स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत् स्वोत्थ मानन्दा मृतं पदम्॥25॥ अर्थात् स्वः = निज आत्मा, स्वं = निज को, स्वेन = निज के द्वारा, स्थितं = (180
-स्वरूप देशना विमर्श
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