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स्थित, स्वस्मै = निज के लिए, स्वस्मात् = अपने आप से स्वस्य = अपने आप को, स्वोत्थं = अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ, अविनश्वरम् = अविनाशी, स्वास्मिन = अपने आप में, ध्यात्वा = ध्यान करके, आनन्दं = आनन्द रूप अमृतं = रूप, पदं = पद को,लभेत = प्राप्त करता है।
इस प्रकार आत्मस्थ दशा को प्राप्त ज्ञानी जीव विपत्तियों के उपस्थित होने पर भी खेद खिन्न नहीं होते । तात्कालिक उदाहरण से दृष्टव्य है कि आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी मुनिराज ने स्वरूप देशना पर अपने विशेष प्रवचन में उल्लेख किया है कि आचार्य महावीर कीर्ति मुनिराज कटनी (म० प्र०) के जिनालय में श्री जी के सामने कायोत्सर्ग मुद्रा में जाप कर रहे थे कि कालिया नाग ने आकर मुनिराज की उंगली को मुख में ले लिया और जब नाग ने उंगुली को नहीं छोड़ा तो महाराज के शब्द थेभईया! यदि बैर है तो देर क्यों? और बैर नहीं है तो अंधेर क्यों? मुझे सामायिक करने दो” वह भी संज्ञी जीव था, वो भी भगवान आत्मा था । साँप ने अंगुली को छोड़ दिया और अपने बिल में चला गया तथा योगी अपने बिल में चले गये अर्थात् आत्मस्त हो गये । सामायिक में लीन हो गये।
आचार्य अकलंक देव ने स्वरूप सम्बोधन में आत्मा के स्वरूप का स्याद्वाद नय के द्वारा कथन करते हुए तत्वार्थ वार्तिक में उल्लेख किया है कि जिस प्रकार से दीपक घट-पटादि पदार्थों के साथ स्व स्वरूप का भी प्रकाशक है। उसे स्व स्वरूप प्रकाशन के लिए प्रदीपान्तर की आवश्यकता नहीं होती। वैसे ही हे आत्मन्! तू स्व, स्व को, स्वं के द्वारा स्थित, स्व के लिए, स्व से उत्पन्न, स्व का अविनाशी, स्व में ध्यान करके, स्व में लीन होकर, स्व से उत्पन्न आनन्द मय अमृत (मोक्ष) का पद प्राप्त कर | आत्मस्वभावं परभाव भिन्नं । संदर्भ ग्रंथ1. भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा दृ पृ० 306 भाग 2 2. भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा दृ पृ० 306 भाग 2 3. स्वरूप सम्बोधन पृ०1 4. स्वरूप सम्बोधन पृ० 3 5. स्वरूप सम्बोधन पृ० 5 6. स्वरूप सम्बोधन पृ० 7
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स्वरूप देशना विमर्श
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