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________________ आचार्य अकलंक देव द्वारा रचित कृतियों में स्वरूप सम्बोधन का वैशिष्ट्य ___-डॉ० सनत कुमार जैन, जयपुर जैन धर्म और दर्शन में आत्म स्वरूप का अपना स्वतंत्र वैशिष्ट्य है। आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। इस सत्य को स्वीकारते हुए आत्मा के स्वरूप का विवेचन जैनाचार्यों ने विस्तार से किया है। लगभग सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आचार्य अकलंक देव बहु प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् हुए। 1 उन्होंने न्याय विषयक अनेक ग्रंथ लिखे। उनकी रचनाओं में लघीयस्त्रय, न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय, प्रमाण संग्रह के साथ स्वरूप सम्बोधन नामक कृति उल्लेखनीय है जो . अत्यंत महत्वपूर्ण है। टीका ग्रंथ के नाम से विख्यात अष्टशती और तत्वार्थवार्तिक सर्वविदित है। __ आचार्य अकलंक देव ने अपनी कृतियों में आत्मा को विभिन्न गुणोंयुक्त व्याख्या से परिभाषित किया है। अनेकान्त और स्याद्वाद के सिद्धान्त भी कसौटी पर कसे जाने वाले कथन द्वारा आत्मा के गुण, स्वभाव, देह प्रमाणता, ग्राह्यता, अग्राह्यता, अस्तित्व, कृर्तत्व आदि अनेक क्लिष्ट संदर्भो को स्पष्ट किया है। स्वरूप सम्बोधन विषय की महनीयता को प्रतिपादित करते हुए आचार्य अकलंक देव ने पच्चीस श्लोक प्रमाण “स्वरूप सम्बोधन" नामक ग्रंथ की अलौकिक रचना की है। यद्यपि यह कृति बहु अक्षर की अपेक्षा लघु है, परन्तु भाव की अपेक्षा बहुत गम्भीर है। गागर में सागर भरा है। प्रत्येक श्लोक में स्यावाद शैली का अनोखा प्रयोग है। इस महत्वपूर्ण कृति का हिन्दी अनुवाद गणिनी आर्यिका 105 सुपार्श्वमती माताजी द्वारा भी किया गया है। . स्वरूप सम्बोधन कृति के प्रत्येक श्लोक पर श्रमणाचार्य श्री 108 विशुद्ध सागर जी मुनि महाराज का विशेष विशद् व्याख्यापूर्ण मार्मिक प्रवचन जो लगभग 400 पृष्ठों में ग्रंथ के रूप में मुमुक्षुओं को उपलब्ध है, यह श्लाघनीय है। आचार्य भगवन्तों ने आत्मा को अपने स्वरूप को जानने हेतु सम्बोधित करते हुए लिखा है- हे आत्मन्! तू बाह्य पदार्थों में लीन होकर व्यर्थ में जन्म-मरण के दुःखों को भोगता हुआ क्यों नरक निगोद आदि गतियों में भटक रहा है। अपने स्वरूप को समझ कर तथा रागद्वेषादि विभाव भावों का वमन कर ज्ञान स्वरूप आत्मा में लीन होकर स्वानुभव रूप अमृत का पान कर अजर-अमर पद को प्राप्त कर। (178 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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