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________________ लाभ ले रहे हैं। देखिए- आचार्यश्री श्रमण और श्रावक दोनों को बराबर से मार्गदर्शन देते हैं जो हमारे आगम की आर्ष परम्परा है। (आचार्य को प्रथम तो श्रमण मार्ग का उपदेश देना चाहिए, उसके बाद श्रावकत्व का) – “अहो! पंचमकाल एवं कालुष्य परिणामों की दुर्गन्ध अपना प्रभाव दिखा रही है। वर्द्धमान की वाणी की सत्यता प्रत्यक्ष दिख रही है। जीव रागी जीवों से प्रीति रखते हैं। संयमियों से संयमी जीव तक क्लेश को प्राप्त होते दिख रहे हैं। स्वयं की श्रेष्ठता प्रकट करना, दूसरों के असद् दोषों को भी सद् रूप कहना, स्वयं के गण, गच्छ, संघ के राग में निर्दोष संघ में दोष प्रकट करना दर्शन-मोहनीय कर्म का ही प्रभाव है।" ___ यही नहीं आगे सभी ज्ञानियो को जिनशासन के प्रति आस्थावान बनाते हुए कितना सुन्दर उद्बोधन देते हैं- “ज्ञानियो! निज आत्मा की रक्षा के भाव रखो। निर्दोष श्री जिनवीरचन्द्र शासन, सर्वज्ञ शासन, जिनेन्द्र शासन, निष्कलंक शासन, अकलंक शासन, स्याद्वाद शासन, अनेकान्त शासन, अर्हन्त शासन, जिनशासन, नमोऽस्तु शाासन, पूत शासन, सिद्ध शासन, सत्य शासन, अमित शासन, वीतराग शासन, क्षेमकृत शासन, पुण्य शासन, व्यक्त शासन की देशना का पारायण कर अपनी निर्मल परिणति कर आत्मकल्याण करें। नमोऽस्तु शासन जयवन्त हो। इस तरह हम देखते हैं कि आचार्यश्री आज के उन दुर्लभ योगियों में से हैं जो व्यक्ति के अंतरंग कषायों का परिमार्जन कर अनादिकाल के खोटे संस्कारों से दूर करते हुए विशुद्ध परिणामों की तरफ आगे बढ़ाते हैं। धन्य हैं वे उत्कृष्ट प्रतिमाधारी त्यागीगण जो आचार्यश्री के पादमूल में रहकर अपना आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त कर रहे हैं। आज स्वरूप संबोधन ग्रन्थ में आचार्यश्री द्वारा वर्णित विषय में कषाय विवेचना पर मुझे चिन्तन करने का जो पुण्य अवसर मिला उसके लिए मैं आचार्यश्री के चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु करते हुए एक ही आकांक्षा करता हूँ कि हे स्वामिन्! मुझे मेरे स्वरूप का बोध हो, सल्लेखना समाधि की प्राप्ति आपके श्रीचरणों में हो। आपके दोनों हस्त मेरे शीश पर हों और मेरा शीश आपकी जंघा पर हो, आत्मध्यान में रत् होते हुए मेरे'कर्ण आपके मुखारबिन्द से निकले हुए इस मांगलिक उद्बोधन का . श्रवण कर रहे हों । इसी के साथ यदि कहीं विवेचना में कुछ मेरे से त्रुटि हुयी हो तो मैं सभी सरस्वती पुत्रों से क्षमायाचना व मार्गदर्शन का आंकाक्षी हूँ। ******* स्वरूप देशना विमर्श 177) Jain Education International . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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