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कर्ता मानने के कारण ही आज भक्तगण स्वाभिलम्बी नहीं, पुरुषार्थी नहीं अपितु भिखारी बनते जा रहे हैं, जहाँ देखो वहाँ उपासना, भक्ति की आड़ में अपने आराध्य से कुछ न कुछ माँगते हुए लोगों की टोली दिखायी पड़ती है । किन्तु अपने आराध्य से उन जैसा महान् बनने की आकांक्षा लेकर विरले ही आराधक दिखाई देते हैं। इसी प्रकार से आचार्य श्री की चर्या के अंदर व उनके उद्बोधन में निरन्तर एक ही बोध होता है कि आचार्यश्री अहोरात्र अपने भावों व परिणामों को विशुद्ध रखने में पूर्णतः सचेत रहते हैं। चर्या में कहीं दोष न आ जाये इसके लिए निरन्तर सजग रहते हैं। देखिये - आचार्य श्री मात्र श्रावकों को ही नहीं, अपितु निर्ग्रन्थों को जिस तरीके से निष्पक्षतापूर्वक, निर्भयतापूर्वक आगम की साक्षी में चर्यावान बनने की जो प्रेरणा देते हैं वह अन्य साधकों के लिए ग्राह्य हैं। उदाहरण देखें- "निर्ग्रन्थों से कहना कि ज्ञानी! सामायिक करना तेरा धर्म है। मण्डली में बैठकर रात्रि में बैठे रहना तेरा धर्म नहीं है ।" और भी आगे निर्ग्रन्थ मुनिराजों को सम्बोधन देते हुए कहते हैं "जहाँ मुनिराज रात्रि की सभा में बैठे हों, उस सभा में तुम्हें शामिल नहीं होना चाहिए।" वर्तमान समय में हम जो साधुगणों को कमण्डल, पिच्छि व शास्त्र के अतिरिक्त अन्य उपकरण उपलब्ध कराते हैं उस पर आचार्य श्री का उद्बोधन अत्यन्त मार्मिक है- " आज के ज्ञानी चर्चा कर लेते हैं यंत्रों से नमोऽस्तु महाराज | ज्ञानी! जितना नमोऽस्तु का पुण्य नहीं मिलेगा, आपको उतना यंत्र से नमोऽस्तु भेजी है, उसका पाप भी मिलेगा । कहीं ऐसा न हो जाये कि अगली आने वाली दीक्षाओं में आपको साथ में मोबाइल देना पड़ जाये। इसलिए आपको विचार करना पड़ेगा। जब तक चेतन तीर्थों की रक्षा नहीं कर पाओगे, तो अचेतन तीर्थों की रक्षा कैसे करोगे ?" निर्ग्रन्थ श्रमण चर्या में निर्ग्रन्थों को उत्कृष्ट चर्या के लिए इससे अधिक सम्बोधन आज नहीं दिया जा सकता ।
आचार्य श्री भले ही करूणानुयोग व द्रव्यानुयोग की शैली में जिनवाणी का श्रवण कराते हैं, लेकिन उनके प्रत्येक शब्द - शब्द में प्रथमानुयोग व चरणानुयोग स्वयं आगे-आगे स्फुटित होता है। लोग मर्यादा व लोक व्यवहार पर गम्भीरतापूर्वक विवेचन उनके द्रव्यानुयोग के कथन में भी दिखाई पड़ता है वह सर्वत्र दुर्लभ है। उदाहरण के लिए "प्रक्षीण पुण्यं विनश्यति विचारणं" के सूत्र की कितनी मार्मिक विवेचना करते हुए आचार्य श्री भव्य जीवों को समझाते हैं, कि हे प्राणी! जिनका पुण्य क्षय को प्राप्त हो गया है उनको आप कितना भी सम्बोधित करें उनकी समझ में नहीं आयेगा । इस पर रावण आदि का उदाहरण बड़े मार्मिक तरीके से दिये हैं और जिसका पुण्य उदय में है उसको जरा से भी शुभनिमित्त अपूर्व फल प्रदान कराते हैं। आज वर्तमान में डाक्टर लोभकषाय के वशीभूत होकर मरीज का शोषण करते हैं एवं मोह के वश में परिवारीजन अन्तिम समय डॉक्टरों की बातों में आकर
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-स्वरूप देशना विमर्श
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