________________
नहीं आया है, अशुभ उपयोग से बचने के लिए आया है ।"
आचार्य भगवन् द्रव्य के परिणमन के स्वातंत्र पर पूर्ण आस्था व विश्वास रखते हैं। उनके रोम-रोम से कण-कण स्वतंत्र है व प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने में स्वतंत्र है उद्घाटित होती है। आचार्य भगवन जब आत्म द्रव्य की स्वतंत्रता का विवेचन करते हैं व भगवान् अरहंत के स्वरूप के विवेचन में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते है तो लगता है कि साक्षात् श्रोतागण केवली भगवंत के समोवशरण में बैठे जिनवाणी का रसास्वादन कर रहे हैं। देखिए - आचार्य अकलंक स्वामी के इस सूत्र "अक्षयं परमात्मानं” की कितनी सुन्दर व्याख्या करते हैं कि मानो इस सूत्र का गूढ़ रहस्य आज हम प्रथमबार ही स्मरण कर रहे हों। सूत्र का संक्षिप्त अर्थ है कि परमात्मा अक्षय हैं जिसकी व्याख्या आचार्य श्री के ही शब्दों में देखें और लोक में व्याप्त मिथ्यात्व तिमिर से जन-जन को हम सम्यक्त्व में ला सकते हैं। उदाहरण देखें"भैया! तुम हमारी भक्ति करो, विशुद्ध सागर की करो, आचार्य विद्यासागर की करो, आचार्य विराग सागर की करो, जिनकी चाहो करो, भैया! तुम अपने भगवान् की भक्ति करो, अपने गुरुओं की भक्ति करो, लेकिन हमारे भगवान् को नीचे मत उतारो। पंडितजी ! क्या कह दिया 'चले आना, हे गुरुदेव ! चले आना । कभी महावीर बनके, तो कभी पारसनाथ बनके । कभी विद्यासागर बनके, कभी विरागसागर बनके।' हे ज्ञानियो! तुम भक्ति तो करो, लेकिन हमारे गये भगवान् को मत बुलाओ । उन्हें वहीं रहने दो, ये अवतारवादी दर्शन नहीं है । ' अक्षयं परमात्मानं ' सिद्धान्त पर ध्यान दो नकल करना सीखे हो, लेकिन थोड़ी बुद्धि तो लगाओ। आप कह रहे थे कि महाराज! मैंने इतने लोगों को भक्ति में लगा दिया, अरे ज्ञानी ! तूने इतने लोगों को मिथ्यात्व में लगा दिया । इतने लोगों को, हजारों को मिथ्यात्व में लगा दिया | क्योंकि सिद्धान्त सब नहीं पढ़ते, लेकिन भक्ति सब करते हैं और वे ही भजन चल रहे हैं क्योंकि नकल है, जिस दिन महावीर मुझे पालने आ जायेंगे, मैं उनको नमोऽस्तु करना उसी दिन छोड़ दूँगा । हे वर्द्धमान! आप मेरे पालनहार जिस दिन हो जाओगे, मैं आपको मानना बंद कर दूँगा, क्योंकि मैं पालनहार को नहीं पूजता हूँ | मैं मारनहार को नहीं पूजता हूँ, जो न मारे और न पाले, ऐसे वीतरागी को पूजता हूँ।”
इस तरह हम देखते हैं कि आज आचार्य श्री जी की वाणी में जो ओज है, निस्पृहता है, निष्पक्षता है, निर्भीकता है, अनेकांतवाद है, स्याद्वाद के प्रति समर्पण है वह दूर-दूर तक ज्ञानियों में आज कम दिखता है ।
आचार्य श्री की उपरोक्त कही गयी विवेचना पर यदि आज हम ध्यान दें तो ईश्वर में कर्तापन जो हमने मान रखा है वह मिथ्या भ्रान्ति टूट सकती है। ईश्वर को
स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
173 www.jainelibrary.org