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ही श्लोक, स्तुति, पाठ, ग्रंथ आदि ऐसे उत्कृष्ट रचेताओं द्वारा रचे होते हैं जो आज भी स्वाध्यायी व्यक्ति को उसकी अन्तःचेतना जगाने में समर्थ हैं। जैसे- मेरी भावना, महावीराष्टक आदि । उसी कोटि में आता है ये 25 श्लोक प्रमाण मात्र का ‘स्वरूप देशना' ग्रंथ। जिसके प्रत्येक श्लोक पर गुरुदेव की देशना अन्तःमन के कालुस्ताओं को धो डालती हैं। गुरूदेव इतने करूणावान हो जाते हैं कि व्याख्यान में ऐसा लगता है कि साक्षात् सिंहासन पर कोई श्रमण नहीं तीर्थंकर विराजमान हैं। उनके रोम-रोम से जन-जन के कल्याण की भावना प्रवाहित होती है। यथा- "देखो, मैं एक बात बोलूँ। यदि आप सम्मेदशिखर जी की वंदना करने जा रहे हो और इंदौर में किसी की समाधि चल रही हो, तो आप समाधि को पहले देखना। अचेतन तीर्थ तो पुनः मिल जायेगा, लेकिन ये चैतन्य तीर्थ फिर नहीं मिल पायेगा।
आचार्यश्री का यह वक्तव्य अत्यन्त विचारणीय है कि आप निर्ग्रन्थ श्रमणों की प्रज्ञा मत देखो | उनके ज्ञान के क्षयोपशम को मत नापो, उनकी प्रवचन कला को मत देखो, वह कितनी भीड़ को आकर्षित करते हैं यह मत देखो, आप सिर्फ उनके संयम
और निर्ग्रन्थ मुद्रा को निहारो। पिच्छि कमण्डल ही उनकी पहचान है। देखिये"निर्ग्रन्थ मुनि का शरीर बिना बोले ही मोक्ष मार्ग का उपदेश देता है।" मूर्त्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं । __ आज यदि साधकों के प्रति इतना समताभाव व अनुराग सभी में उत्पन्न हो जाये तो साक्षात् चतुर्थकाल दिखाई पड़ेगा। आगे देखिए-गुरूदेव की सभी साधकों के प्रति महान् करूणा । गुरूदेव व्याख्यान में उद्घाटित करते हैं कि यदि कोई आपके समीप रूग्ण, वयोवृद्ध, शरीर से असमर्थ, समाधि के सम्मुख, सल्लेखना में रत कोई मुनिराज हैं तो प्रभावक साधु के सामने “एक बार श्रीफल चढ़ाने में विलम्ब कर देना, किन्तु सल्लेखना के सम्मुख भविष्य के भावी भगवान् की आत्मा के कषायों को मन्द करने अवश्य जाना।
आगे गुरुदेव का चिन्तन देखिए- कि हमें अपने अरिहंत भगवान् एवं निर्ग्रन्थ गुरूदेवों के प्रति अनुराग, उनके गुण अपने में प्रगट करने के लिए होने चाहिए, न कि उनके राग में बंधने के लिए | राग से विमुक्त होने के लिए ही देव-शास्त्र-गुरु की उपासना की जाती है। उदाहरणार्थ- “देव, शास्त्र, गुरु की पूजा न करे, वह जैन कहलाने का पात्र नहीं । परन्तु ज्ञानी! देव, शास्त्र, गुरू की पूजा करते-करते हुए भी वेदी विशेष पर राग हो गया कि मैं इसी वेदी पर पूजा करूँगा, दूसरी पर नहीं तो तेरे पास धर्म नहीं। तू पुजारी तो है, परन्तु पूज्यता के लिए नहीं। सम्यग्दृष्टि जीव भगवान् की पूजा करने नहीं आता, पूज्य होने के लिए आता है। पूजा करने के लिए
-स्वरूप देशना विमर्श
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