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________________ कि जब तुम अपने जनक नहीं हो, तो पुत्र के जनक कब से हो गये? छ: द्रव्य त्रैकालिक हैं, जीव द्रव्य का कोई जनक आज तक हुआ ही नहीं है पुद्गल द्रव्य का कोई जनक नहीं हुआ। धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य का कोई जनक नहीं हुआ है। ये परिणामिक भाव में रह रहे हैं, इनका कोई जनक नहीं है। हे जीव! तू अपने रागादिक भावों का जनक तो है, तू अपने शुभाशुभ परिणामों का जनक तो है, परन्तु जिसमें शुभाशुभ परिणाम हो रहे हैं, उस परिणामी का जनक तू भी नहीं हैं।" आचार्य श्री के कथन में ग्रंथों का वाचन जिस समय होता है, लगता है कि साक्षात आत्म समयसार के दर्शन हो रहे हैं। श्रोता मंत्रमुग्ध होते हुए साक्षात आत्मानन्द का अनुभव करता है। आगे निरूपण में बताया कि "जितने पिता बैठे हों वे थोड़ा विवेक रखकर सुनना। भैया! सत्य बताना, पिता ने पुत्र को जन्म दिया कि पिता ने अपनी इच्छाओं को जन्म दिया? पिता के अंतरंग में पुत्र जन्म ले रहा था, कि पिता के अंतरंग में कामनाऐं, वासनाएं जन्म ले रही थीं? हे जनक! तू वास्तव में जनक किसी का है तो अपनी काम इच्छाओं का जनक है, तू अपने पुत्र का जनक नहीं है। वह इस जीव का पुण्योदय था जिसने कर्म-नोकर्म प्राप्त करके आपके संयोग से नोकर्म वर्गणाओं को प्राप्त किया हैं। ये उस जीव का नियोग था, लेकिन आप तो जनक अपनी इच्छा मात्र के हो, संतान के जनक नहीं।' ___ बन्धुओ! आचार्यश्री के शब्दों में वस्तु तत्त्व की जो झलक स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है वह मनन योग्य है। आगे भक्ति एवं आत्म अनुभूति के लिए आचार्यश्री का यह सम्बोधन दृष्टव्य है- “जिनालय में भक्ति करने आना और शमशान में वस्तुस्वरूप को समझने जाना । जितने गोरे थे, जितने सुन्दर थे, कितना श्रृंगार किया, कितना शरीर को सजाया, परन्तु सबको वहाँ देखने चले जाना । वहाँ सबका रंग काला ही होता है। राख का ढेर ही मिलेगा। अहो ज्ञानियो! जिसमें राग किया है, उसकी राख होगी। अरे राख के रागियो! तुम्हें राख से ही राग करना था तो चूल्हे की राख को भी साबुन लगा देता? इस तरह हम देखते हैं कि आज के इस भोग प्रदान कलयुग में मुमुक्षु को संसार शरीर भोगों से विरत करने के लिए इससे उत्कृष्ट उद्बोधन नहीं हो सकता। इसलिए आचार्य श्री बहुत ही आत्म विश्वास के साथ कहते हैं- "जयवन्त हो जिनशासन, नमोऽस्तु शासन ।” आचार्यश्री के मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द अपने आप में एक मंत्र है, जो जगत् के प्राणी को धर्म पर समर्पित करने के लिए आत्म स्वभाव में स्थिर करने के लिए प्रेरणा देता है। यूँ तो लोग हजारों -हजारों पृष्ठ के ग्रंथ लिख देते हैं, घंटो-घंटों ही नहीं बल्कि लम्बे समय तक व्याख्यान देते हैं किन्तु श्रोताओं को उतना आकर्षित नहीं कर पाते । कुछ स्वरूप देशना विमर्श -(171) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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