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________________ आना चाहिए । शरीर छिद जाए, भिद जाए, ज्ञानी! कुछ नहीं गया, पर्याय ही तो गयी है। श्रद्धान छिद गया यानि परिणामी का परिणमन का परिणमन विकृत हो गया। ध्यान से सुनना, आवश्यकता ये है। आज हमारे देश के लगभग 1400 पीछीधारी इसी भावना के साथ आगे बढ़े तो हम विश्व में एक नयी क्रान्ति ला सकते हैं। इसलिए हे प्राणियो! 'प्रियधम्मो, दृढ़ धम्मो,' धर्म से प्रेम करो व धर्म में दृढ़ आस्थावान बनो। आचार्य श्री सिद्धान्त में व चर्या में विशुद्ध आगममार्गी हैं। जिनको अरहन्त, वीतराग-मुद्रा व निर्ग्रन्थ मुनिगण एवं माँ जिनवाणी ही एक मात्र शरण है और उनका अटूट विश्वास है कि कोई देवी-देवता बिना जीव के पुण्योदय के कुछ भी नहीं दे सकते। आचार्यश्री का प्राणी मात्र को यही सम्बोधन होता है कि सदैव अपने परिणामों में कषायों को मन्द रखते हुए विशुद्ध-भावों से देव-शास्त्र गुरु के प्रति निर्मल निष्काम भाव से आराधना करें। उदाहरणार्थ- आज से सभी ज्ञानी वंदना करना, बंध न करना । वंदना करना उसी की, जिससे बंध न हो । जहाँ बंध है, उसकी वंदना-न! अर्थात् वीतराग अरिहन्त प्रभु की वंदना सच्चे-भाव से करते हुए रागी द्वेषियों से सदैव दूर रहना चाहिए। भावों को उत्कृष्टता प्रदान करते हुए आचार्य श्री का यह कथन दृष्टव्य है। पंचपरमेष्ठी ही वंदना के स्थान हैं,” व्यवहारनय से। निश्चयनय से मेरी निज ध्रुव आत्मा ही वंदनीय है। परमशुद्ध निश्चयनय से न कोई वंद्य है, न कोई वंदनीय है, जो है, सो है' आचार्य श्री का यह उद्बोधन भव्य प्राणियों के लिए अत्यन्त प्रेरणा स्रोत है“भूमि दे सकते हैं, धन दे सकते हैं, परन्तु श्रद्धा सभी को नहीं दे सकते हैं। श्रद्धातो पंचपरमेष्ठी के चरणों में ही रहेगी। “उद्योगपति तो जगत के बहुत लोग बन गए, अब उस उद्योग का पति बनना है जिसमें उद्योग ही न करना पड़े। तभी तो हम अपनी आत्मा में गुनगुना सकेंगे। “आत्मस्वभावं परभाव भिन्न” संसार के अन्दर अपने को वीतराग मार्ग पर ले जाने के लिए इससे बड़ा कोई मंत्र नहीं हो सकता और आगे आचार्य श्री की विशाल हृदयता देखिए- “छ: द्रव्य का स्वरूप चिन्तवन कराते हुए परिणामों को विमल बनाने एवं अत्यन्त मंद कषायी बनने के लिए एवं जगत में कर्तृत्व बुद्धि का अभाव करने के लिए आचार्यश्री का यह उद्बोधन मननीय है।" "पुत्र को जन्म दिया, लेकिन अहो जनको! तुम सत्य बताना (170) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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