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मरीज को धर्म-ध्यान से वंचित करते हैं इस पर आचार्यश्री के शब्दों में वानगी देखिये- “ज्ञानी यथार्थ वैद्य होगा, उसको तो बहुत पहले ही मालूम चल जाता है। कोई लोभी होगा, यमराज होगा तो मालूम होते हुए भी भर्ती कर लेगा। 'कल्याणकारक' जैन आयुर्वेद शास्त्र है, उसमें बहुत सारी सूचनाएं लिखी हुई हैं। रोगी का सदस्य वैद्य को आमंत्रण - निमंत्रण देने जा रहा है। अब वह मुख से आमंत्रण बोलता है कि निमंत्रण बोलता है, इसमें भी रहस्य हैं अच्छे कामों के लिए आमंत्रण कार्ड भेजना चाहिए कि निमंत्रण कार्ड भेजना चाहिए सब लोग भूल करते हैं। आमंत्रण में निमंत्रण लिखते हैं और निमंत्रण में आमंत्रण | दोनों में गड़बड़ियाँ हैं। एक ऊपर जाने के लिए भेजा जाता है, एक नीचे जाने के लिए।" इस तरह आज तो डॉक्टर लोग मरीज की अन्तिम अवस्था जानते हुए कृत्रिम श्वासोच्छवास देने की प्रक्रिया के तहत आर्थिक शोषण करते हैं उसके लिए समाज के सामने यह अच्छा उदाहरण है। इसी तरह 'श्राद्धं ण मुंजीत' इस लघु सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री स्पष्ट करते हैं कि हे ज्ञानियो! हमें किसी भी प्रकार से मृत्यु उपरान्त भोज में शामिल नहीं होना चाहिए । एक तरफ उस घर में करूणाक्रन्दन होता है, दूसरी तरफ आप भोजन करते हो, यह कहाँ तक उचित है। इसी तरह आगे और व्याख्या करते हए आचार्यश्री सम्बोधन देते हैं कि हे प्राणियो! तेरहवीं करके उसके नाम पर आज जो शान्ति पाठ का ढोंग रचते हो वह आगम के अनुकूल नहीं है। वह सच्चा मार्ग नहीं है। शान्ति पाठ तो शान्ति के लिए उचित स्थान पर उचित समय पर किया जाना चाहिए । इसी प्रकार से आचार्यश्री की हर व्याख्या के अन्दर परिणामों को विशुद्ध करने का व कषायों को मन्द करने का जो अचूक मंत्र होता है वह सर्वत्र सुलभ नहीं है। देखिये- पद्मपुराण जी ग्रन्थ के आधार पर जब क्रतान्तवक्र सेनापति माँ सीते को वन में छोड़कर के आते हैं उस समय कर्म, कर्मफल व भावों की दशा व ज्ञानी के क्षयोपशम का कितना सुन्दर चित्रण है यदि आज की हमारी माता-बहिनें, हमारे बन्धुवर इसको आत्मसात् कर लें तो घर-घर के अन्दर पुनः अयोध्या का रामराज्य दिखाई देगा। सेनापति! आप चक्र को ठीक करो। हे जननी, हे सीते! किसने कह दिया कि चक्र टा। हे माँ! रथ का चक्र नहीं टूटा, आपके कर्म का चक्र टूट गया है। हे देवी! मुझ किंकर से कुकर श्रेष्ठ है। कूकर स्वतंत्र होकर विचरण करता है, परन्तु किंकर को जैसा स्वामी कहता है वैसा करना पड़ता है। आज मैं किंकर न होता तो आप जैसी सती को जंगल में छोड़ने नहीं आता । यही कारण है कि एक समय था जब जैनी अपना व्यापार कर लेते थे, परन्तु किसी की नौकरी करने नहीं जाते थे। जिस दिन प्रवचन सुनना हो उस दिन ताले बंद करके आ जाएगा तू और यदि तू नौकर होगा, तो तेरा मन भी करेगा फिर भी नहीं आ पाएगा। किंकर से कूकर श्रेष्ठ स्वरूप देशना विमर्श
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