________________
चित्त को ऐसे विकृत कर देती है जैसे मधुर दुग्ध को नीबू की एक बूंद क्षण में ही विकृत कर देती है। तृष्णा एवं आत्मशांति में सौत का सम्बन्ध है। ( पृ० 181)
तृष्णा की महिमा को बताते हुए कह रहे हैं कि मोक्ष की तृष्णा से मोक्ष भी प्राप्त नहीं होता है | ( पृ० 182)
अन्त में उपसंहार करते हुए आचार्य श्री कह रहे हैं कि गृहस्थों को तीर्थस्थापना, दान - पूजा, धर्मायतन की रक्षा आदि करना चाहिए। उनके लिए वही सम्यक् क्रिया परम्परा से मोक्ष का कारण है। (पृ० 199)
ये कुछ उद्धरण स्वरूप सम्बोधन परिशीलन से लिए गये हैं। वर्तमान में मिथ्यात्व से बचना बड़ा कठिन, दुष्कर होता जा रहा है। आचार्य श्री ने ग्रन्थ में कई उदाहरणों से, कथानकों के माध्यम से मिथ्यात्व को समझाने का प्रयास किया है जिसको गृहस्थ मिथ्यात्व मानता ही नहीं है। सम्यकत्त्व के अभाव में जीव का जगत् में कल्याण होना सम्भव नहीं दिखता है। जब तक मिथ्यात्व नहीं छूटेगा तब तक सच्चा श्रद्धान किस पर होगा ? बिना सच्चे श्रद्धान के श्रावक कैसे ? श्रावक बने बिना मोक्षमार्ग के पथिक श्रमण की भावना कैसे उद्भूत होगी? अतः हम सब मोक्षमार्ग के पथिक की प्रथम आरम्भिक दशा को प्राप्त कर सकें । श्रावक बनकर श्रावकाचार के अनुसार चल सकें इसी मंगल भावना के साथ ।
स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
*******
For Personal & Private Use Only
167
www.jainelibrary.org