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वर्तमान में काल के प्रभाव के कारण, भौतिक सुखों की आशा में निरन्तर वृद्धि होने के कारण लोकमूढ़ता बढ़ती चली जा रही है। कलश को घर में स्थापित कर लो धन की वृद्धि होगी आदि कई मान्यतायें श्रावकों में प्रवेश करती जा रही हैं जो संसार बढ़ाने का ही कारण हैं ऐसी लोकमूढ़ता का त्याग करना चाहिए। ऐसी लोक मूढ़ता नहीं आनी चाहिए जिससे अपने सम्यक्त्व और चारित्र दोनों की हानि हो जाये । (पृ० 62)
श्रावक के आचार, क्रियाकलापों के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि सम्यग्दृष्टि हेय, उपादेय और उपेक्षा आदि तीन भावों से अपने जीवन को चलाता है। हेय को त्यागता है, उपादेय का ग्रहण करता है और जो न हेय है,न उपादेय है वह उपेक्षनीय है (पृ० 74)
श्रावक के कर्तव्यों के विषय में कह रहे हैं कि वस्तु के उभय धर्मों को समझते हुए, स्वात्म तत्त्व की उपादेयता पर लक्ष्यपात करना ही श्रमण श्रावक का कर्तव्य है। विसंवादों में निरूपराग वीतराग धर्म की सिद्धि नहीं है। धर्म तो विसंवादी होता है। (पृ० 81)
श्रावकों को मिथ्या मान्यता से छुड़ाने के लिए आचार्य श्री कह रहे हैं कि यदि ब्रह्मा, ईश्वर हमारे सुख-दुख के कर्ता होते तो फिर मेरा किया कर्म व्यर्थ हो जायेगा और मैं पराधीन हो जाऊँगा, फिर तो जो कुछ भी होगा वह सब ईश्वर के अनुसार होगा |मैं तो पूर्ण स्वच्छन्द हो जाऊँगा (पृ० 96)
आचार्य श्री कह रहे हैं कि एकान्तपक्ष से बचो, भिन्न प्रवृत्ति करो । जो स्याद्वाद की वाणी कहती है, वैसा ही प्रतिपादित करो। (पृ०105)
गृहस्थ के द्वारा भी अपने शक्ति के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप त्रयात्मक मुक्ति का मार्ग सर्वदा सेवन योग्य है (पृ० 107)
गृहस्थ को घर में रहते हुए भी दान पूजा करना भी परम्परा से कल्याण का मार्ग है। (पृ० 141)
आचार्य श्री विषयों की आसक्ति का दुष्परिणाम बताते हुए कथन कर रहे हैं कि चक्रपदधारी अर्थात् चक्रवर्ती भी विषयाशक्ति के कारण राज्य पद में रहते हुए मरण करता है तो नरक भूमि का स्पर्श करता है अतः विषयाशक्ति से दूर होओ (पृ 150)
श्रावकों को सावधान करते हुए कह रहे हैं कि विकारी भाव को सहजभाव कहकर संतुष्ट हो गया तो कभी शील संयम का पालन नहीं होगा। (पृ० 163)
कषायभावों से बचने का उपदेश देते हुए कह रहे हैं कि जिनशासन में मायाचारी को मोक्ष तत्त्व की प्राप्ति में कोई स्थान नहीं है। मायाधर्म तिर्यंच पर्याय की प्राप्ति का ही उपाय है। (पृ०178)
आचार्य श्री तृष्णा के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि जिसको संसार सीमित करना है उसे तृष्णा घटानी ही पड़ेगी। तृष्णा के दुष्परिणाम को उदाहरण से स्पष्ट कर रहे हैं कि तृष्णा
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-स्वरूप देशना विमर्श
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