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________________ मार्ग कैसे प्ररूपित किया जाये जो सर्वग्राही हो । वे अपनी बात को, जो आगमानुकूल ही होती है बड़ी स्पष्टता और निर्भीकता से रखते हैं। उन्हें श्रमण - श्रावक में किसी प्रकार का शिथिलाचार मान्य नहीं है। लगता है उनकी यह भावना आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों के परिशीलन से प्रस्फुटित हुयी हैं। जिसका पालन वे स्वयं भी कठोरता से करते हैं उनके कथन मात्र वचनों में नहीं हैं, उनको उन्होंने अपने में आत्मसात किया है। सबसे बड़ी विशेषता पन्थवाद के विमोह जाल से मुक्त रहना है। स्वरूप सम्बोधन जैसे न्याय ग्रन्थ को जो अत्यन्त जटिल, दुरूह हैं। उन्होंने अपने प्रवचन के माध्यम से अत्यन्त सरल कर दिया है। इसके पूर्व इस ग्रन्थ की चर्चा, स्वाध्याय सामान्य जनों में नहीं होती थी। इस परिशीलन के माध्यम से श्रावकाचार व्यवस्था जो स्वरूप सम्बोधन में है इस पर विचार करते हैं। श्रावक शब्द की रचना श्रद्धान, जो विवेक पूर्वक किया जाये, कुल परम्परा को ध्यान में रखते हुए से हुयी है। इस कलिकाल में पंचमकाल में सही श्रद्धान का स्वरूप क्या होना चाहिए। यह बड़ा कठिन विषय हो गया है। जीवन में अनेक प्रकार की विषमतायें प्रत्यक्ष दिखती हैं जिससे श्रावकों का श्रद्धान विचलित हो जाता है, डगमगाने लगता है। आचार्य श्री मंगलाचरण के परिशीलन में कह रहे हैं कि "विशिष्ट धर्मात्मा दुःखी देखे जाते हैं, पापी धन वैभव से सम्पन्न दृष्टि गोचर हो रहे हैं इसलिए आपके द्वारा कथित मंगल की अनिवार्यता फलित नहीं होती" आचार्य श्री समझा रहे हैं कि जो भाव भीरू, आस्तिक व तत्त्वज्ञ श्रावक पुरूष होता है उसके अन्दर ऐसा विचार नहीं हो सकता। जिसे वर्तमान की पर्याय मात्र दिख रही है, भूत भविष्य का चिन्तन ही जिसके चित्र में नहीं है ऐसी प्रत्यक्ष मात्र को प्रमाण मानने वाली चार्वाक दृष्टि है । (पृ0 5) श्रद्धान के विषय में आचार्य श्री का कथन है कि किसी भी परम्परा में व्यक्ति का जन्म क्यों न हों, उससे व्यक्ति के श्रद्धान का जन्म नहीं होता, श्रद्धान का उद्भव तो चिन्तन की धारा से होता है । ( पृ० 6) श्रावकों को समझाते हुए कह रहे हैं। कि पापी पाप कर्म से सुखी नहीं है, धर्म करने वाला धर्म से दुःखी नहीं है । ( पृ० 6 ) यदि तुम जैन धर्म को मानते हो तो हेतु, हेतुफल पर विचार करना चाहिए। ( पृ० 24 ) श्रावकों को अशुभ असातावेदनीय कर्म के आस्रव से बचने हेतु कह रहे हैं कि इष्ट के वियोग होने पर ये विचार करना चाहिए - वस्तु स्वरूप का चिन्तवन करते हुए उसके अंतिम संस्कार के समय स्वात्मा में समाधि मरण के संस्कारों का आरोपण करो । व्यर्थ में दुख करके स्व पर के लिए असातावेदनीय कर्म का आस्रव मत करो ( पृ० 40) मिथ्यात्व सहित जीवन अधिक घातक है। श्रद्धा की रक्षा प्रतिपल करना चाहिए। ( पृ० 61) स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only 165 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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