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देव पूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। ____दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने॥पं.वि. 6/7
जिनदेव की पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थों के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि श्रावक के कर्तव्यों का वर्णन आचार्यों ने अनेक प्रकार से किया है, परन्तु गहराई से विचार करने पर लगभग एक सा ही है। सबका जोर सर्व हिंसा से रहित होकर आत्म साधना पर है।
श्रावक की 53 क्रियायें कही गयी हैं। आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार ग्रन्थ में इनका उल्लेख किया हैगुणवयतवसमपडिमा दाणं जलगालणं अणत्यमियं।
दंसण णाण चरितं किरिया तेवण्ण सावया भणिया॥ र.सा./149 8 मूलगुण, 12 व्रत (5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत), 12 तप (6 अंतरंग, 6 बहिरंग), 11 प्रतिमा, 4 प्रकार का दान, जलगालन, रात्रि भोजन त्याग और रत्नत्रय इस प्रकार श्रावक की 53 क्रियायें हैं। उनका जो पालन करता है वह श्रावक है। श्रावक के अन्य कर्तव्यों में मरणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करना, देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैय्यावृत्त्य, कायक्लेश, पूजन विधान करना चाहिए । अहिंसाणु व्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति, तीन गुप्ति का एकदेश पालन करना चाहिए । महाव्रतों की भावना भाना चाहिए । धार्मिक क्रियाओं में निरन्तर उत्साह बनाये रखना चाहिए ।किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिए।
श्रावकों के आचार के लिए कई ग्रन्थ श्रावकाचार के रूप में प्रसिद्ध हैं। 53 श्रावकाचार ग्रन्थ कहे गये हैं जिनमें मुख्य रूप से रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, वसुनंदी श्रावकाचार, सकलकीर्ति श्रावकाचार, सागार धर्मामृत, पद्मनंदी श्रावकाचार आदि प्रचलित हैं।
आचार्य विशुद्ध सागर महाराज जी ने स्वरूप संबोधन पर प्रवचनरूपी स्वरूप सम्बोधन परिशीलन नामक ग्रन्थ लिखा है। आचार्य विशुद्ध सागर जी की सबसे बड़ी विशेषता है कि सरल, सुगम, सहजग्राही, हृदयस्पर्शी भाषा में कथन करते हुए आगम की गम्भीर वाणी को परोस देते हैं। जो सामान्य जन के द्वारा सीधे सरलतापूर्वक ग्रहण कर ली जाती है। इनकी शैली वार्त्तात्मक है जो दुरूह से दुरूह विषय को सरल रूप से प्रस्तुत करती है। विभिन्न ग्रन्थों के उद्धरण, कथानक के माध्यम से पूर्वाचार्यों के प्रति विनय होने के साथ-साथ कथन की प्रमाणिकता की भी पुष्टि होती है। चर्या की विशुद्धि के कारण, भावों में निर्मलता है जो सर्व जीवों के प्रति करूणा रूप में परिलक्षित होती है। उनके मन में सदैव यही विचार रहता है कि अज्ञ एवं विज्ञ जीवों का कल्याण कैसे हो? इसका सर्वसुगम
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स्वरूपदेशना विमर्श
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