________________
स्वरूप देशना में श्रावकाचार की व्यवस्था
- इंजी. दिनेश जैन, भिलाई
स्वरूप संबोधन ग्रंथ न्याय चूड़ामणि, न्यायाचार्य भट्ट अकलंक देव द्वारा विरचित संस्कृत भाषा में लघु ग्रंथ है, जिसमें मात्र 26 श्लोक हैं। इस लघु कृति के द्वारा आत्म सम्बोधन के साथ-साथ न्याय दर्शन का विस्तार करते हुए, जो गागर में सागर भरा है वह अद्वितीय, अप्रतिम है, रचनाकार का स्वयं के द्वारा स्वयं को • सम्बोधन है स्वरूप सम्बोधन। यह सम्बोधन सामान्य भाषा में न होकर न्याय की भाषा में है अर्थात् दो घोर विरोधी दिखने वाली अवधारणाओं को एक साथ रखकर भगवान को नमस्कार किया गया है। इस ग्रन्थ में परमात्मा के स्वरूप, जीव तत्त्व के स्वरूप तथा मोक्ष आदि की विस्तृत व्याख्या की गयी है। श्रमण, श्रावक, गृहस्थ आदि सबके करने योग्य कार्य का भी वर्णन है ।
स्वरूप सम्बोधन में श्रावकाचार की व्यवस्था के विषय में विचार करने के पूर्व श्रावक की परिभाषा, उसके आचार के विषय में संक्षिप्त चर्चा करते हैं। श्रावक शब्द रचना की दृष्टि से तीन शब्दों से बना है श्र + व + क जिसका सामान्य अर्थ श्रद्धावान, विवेकवान और क्रियावान लिया जाता है। शब्द ही उसके सम्पूर्ण क्रिया कलापों को स्पष्ट कर देता है।
शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो विवेकज्ञान, विरक्तचित्त, अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। श्रावक के तीन भेद कहे गये हैं- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । निज धर्म का पक्ष मात्र करने वाला पाक्षिक है । व्रतधारी नैष्ठिक श्रावक है। व्रतधारी श्रावक की वैराग्य दृष्टि के उत्कर्ष के अनुसार ग्यारह श्रेणियाँ बनाई गयी हैं जिन्हें प्रतिमायें भी कहते हैं। श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार त्याग संयम के द्वारा प्रतिमाओं को निरन्तर बढ़ाता जाता है। लेकिन यह बढ़ना क्रमानुसार, तारतम्यता पूर्वक ही होता है। अर्थात् पहली प्रतिमा के बाद ही दूसरी प्रतिमा होगी ऐसा नहीं कि तीसरी प्रतिमा सीधे हो जाये। दूसरी प्रतिमा के बाद तीसरी प्रतिमा होने पर, पहली दो प्रतिमाओं के नियमों का पालन करना ही पड़ेगा ।
श्रावक के मूल और उत्तर गुणों के विषय में भी संक्षेप से विचार करते है। श्रावक
अष्टमूल गुण धारण करने चाहिए। यदि वह अष्टमूल गुण का धारक नहीं है एवं उसने सप्त व्यसनों का भी त्याग नहीं किया है तो वह श्रावक कहलाने का पात्र भी नहीं है अर्थात् उसकी श्रावक संज्ञा भी नहीं है। श्रावक के 12 व्रत कहे गये हैं। अष्टमूल गुण व्रती और अव्रती दोनों श्रावकों के होते हैं। रत्नकरंड श्रावकाचार में
162
• स्वरूप देशना विमर्श
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org