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स्पष्ट किया कि जब तक निश्चय भूतार्थ की प्राप्ति नहीं हो रही है, जब तक उसके लिए व्यवहार ही भूतार्थ है। परन्तु परम भूतार्थ दृष्टि जो परमार्थ है, वही भूतार्थ है। यह समयसार की दृष्टि जो परमार्थ है, वही भूतार्थ है। यह समयसार की दृष्टि है। मिथ्यात्व भी सत्य है। यदि वह सत्य नहीं है, तो छोड़ेगे किसको? सत्ता रूप सत्य है, तो फिर असत्य क्यों है? सम्यक् रूप नहीं है। इसलिए असत्य है। क्यों? एक एक के पक्ष को सम्हल कर समझिये । सम्यक् रूप नहीं है, इसलिए असत्य; परन्तु नहीं है क्या? इसलिए सत्य है। ज्ञानियो! गृहस्थी में रहना भूतार्थ है कि अभूतार्थ? घर में रहना भूतार्थ है कि अभूतार्थ? कथञ्चित गृहस्थ भी मोक्षमार्ग है, इसलिए कथंचित लगा रहे हो । एक बार बोल दो, गृहस्थी भूतार्थ है कि अभूतार्थ? मैं गृहस्थी पूछ रहा हूँ? श्रावक धर्म नहीं पूछ रहा हूँ। श्रावक धर्म मान सकता हूँ वह परम्परा से मोक्ष का कारण है। मैं तो गृहस्थी पूछ रहा हूँ। गृहस्थी भूतार्थ है कि अभूतार्थ? अभूतार्थ है, तो क्यों बंधे बैठे हो? गए विचारे । मैं जानकर प्रश्न करता हूँ, इससे इनके अन्दर की भावना तो पता चलती है कि लोग कर क्या रहे है अन्दर में । जो ऊपर-ऊपर से बोलते रहते हैं आत्म-स्वभावं परभाव भिन्नं' तत्त्व को समझे यही स्वरूप है, अर्थात् - जो है, सो है।
इस प्रकर परमपूज्य 108 आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज द्वारा स्वरूप संबोधन (स्वरूप देशना) ग्रंथ में द्वैत-अद्वैत भाव का निरूपण किया गया है। आत्मस्वभावं परमाव भिन्नं। आत्मा का स्वभाव पर भावों से अत्यंत भिन्न है। - भगवान महावीर स्वामी की जय!
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स्वरूप देशना विमर्श
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