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है। नीर-क्षीर में संश्लेष भाव है, फिर भी नीर तो नीर है और क्षीर तो क्षीर है।
अण्णोणं पविसंता दिंता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगं सगभावं ण विजहति ॥ 7 ॥
- पंचास्तिकाय
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में अन्योन्यभूत से मिले होने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। विश्वास बनाइये और प्रतीति बनाइए । जिसमें अनादि से लिप्त हो, उसमें किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित मत कीजिए । ज्ञान का विषय तो बनाइये । ज्ञेय तो बना कर चलना, प्रमेय तो बना कर चलना, लेकिन हे प्रमाता ! उसे ज्ञाता मत बना लेना । देखो, भैया! तुम पाप छोड़ पाओ या न छोड़ पाओ, ये तुम्हारा दोष है, लेकिन ज्ञानी! एक दोष में दूसरा दोष मत कर देना कि पाप को उपादेय कहना प्रारम्भ कर दो । पाप को यही कहना, तो विश्वास रखना, किसी न किसी पर्याय में तू छोड़ ही देगा। गृहस्थी में आप रहे हो, सो रहा, लेकिन गृहस्थी में रहने पर संतुष्ट मत हो
जाना ।
आचार्य अमृतचंद्र स्वामी 'पुरूषार्थ सिद्धयुपाय' ग्रंथ के अंत में बोल रहे हैं कि तू श्रावक है। कम से कम तू इतना तो कर ले। श्रेष्ठ यही है कि छोड़ना ही होगा । यदि नहीं छोड़ पा रहा है तू, वर्तमान में शक्ति नहीं है तेरे पास, तुरन्त छोड़ने की श्रद्धा की शक्ति तो होना ही चाहिए। इतना निर्णय करके बैठना, जब भी मोक्ष होगा, पहले पापों को क्षय करना पड़ेगा । ज्ञानी! मिट्टी के मटके खरीदने जाता है तो उसे दस-दस बार ठोक कर देखता है। ज्ञानी! उसमें तू पानी भरेगा, इसमें जिनवाणी भरी जा रही है, ठोको फिर से । ज्ञानी! जब भी मोक्ष मिलेगा, जब भी कर्मों से मुक्त होगा, उससे पहले बुद्धिपूर्वक पापों से मुक्त होना पड़ेगा। ये सत्य है कि नहीं ? श्रद्धा है कि नहीं ? इतने तो सफल हो गए कि ये पाप को पाप मान रहे हैं। मेरा विश्वास है कि जो पाप को पाप मानता रहेगा यह किसी दिन पाप को छोड़ देगा । पाप में संतुष्ट नहीं होना और इस पर्याय में भी संतुष्ट नहीं होना । यहाँ वैराग्य की बातें सब करते हैं लेकिन घर में जाते ही सुखी हैं। बच्चों को देखता है, परिवार को देखता है, अपना परिवार ही अच्छा है। लोग क्या करते हैं? जब चारपाई पर होते हैं तो सोते बाद में हैं, सोचते पहले हैं, वे परम पुण्यात्मा जीव हैं जो सोचे बिना सो जाते हैं।
‘तस्य भावस्तत्त्वं’ जो स्वभाव है, वही तत्त्व है। इसलिए अभूतार्थ भूतार्थ है, अभूतार्थ अभूतार्थ है, अभूतार्थ भी भूतार्थ है जो निश्चय नय को सर्वथा भूतार्थ व्यवहार नय को सर्वथा अभूतार्थ कहते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। जयसेन स्वामी ने
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स्वरूप देशना विमर्श
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