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________________ बसाना अभूतार्थ है। ये मात्र भगवान् की पूजा पाठ में भूतार्थ अभूतार्थ लगाता रहता है। पूजन छोड़ो, अभूतार्थ है। अरे भाई! 'पूजन छोड़ो, अभूतार्थ है' ये तूने बहुत रट लिया। ये तो बता कि घर छोड़ो अभूतार्थ है, कषाय छोड़ अभूतार्थ है, ज्ञानी! जब तक विषय-कषाय न छूटे, भगवान् की पूजन मत छोड़ देना। वह तो परम्परा से मोक्ष का कारण है, लेकिन तेरे विषय कषाय तो निश्चत ही संसार का कारण है । 'किं भूतार्थ कि अभूतार्थ' दृष्टि को तो समझो, अन्दर में तो बैठो। सच बताना, भगवान् की पूजा करते-करते संक्लेशता आती है, कि आनंद आता है ? आनंन्द आता है। ज्ञानी ! जो वर्तमान में आनन्द दे, वो तो आनन्द भविष्य में भी प्रकट कर सकता है । हः प्रमेय में कष्ट है बहि:प्रमेय में राग है, बहिः प्रमेय में द्वेष है, बहिः प्रमेय मेंसम्यक् मिथ्यात्व है। भाव प्रमेय तो एक अवाच्य है। भाव प्रमेय में क्या देखता है? ज्ञान से ज्ञाता ज्ञेय को जब निहारता है, राग द्वेष को गौण करके, तब मात्र सुख भी सत्प है, दुःख भी सत्प है दोनों की सत्ता स्वीकारिए। दोनों पुण्य-पाप पदार्थ हैं। शुभाशुभ आसव भाव भी पदार्थ है, तत्त्व भी हैं। पदार्थ को पदार्थ रूप में देखिए । पदार्थ में प्रवेश क्यों करते हो? जो दुःख को दुःख रूप देखता है, वही दुःखी होता है। जो दुःखको दुःख रूप देखता नहीं, वह दुःखी होता नहीं। भैया! बताओ तुम्हारी जेब में जो रखा है, वह अपने चतुष्टय में है कि तेरे चतुष्टय में है? अपने चतुष्टय में । यदि बगल वाला बालक निकाल ले जाऐ, तो कैसा लगेगा? लगना तो नहीं चाहिए, किन्तु लगता है। क्यों नहीं लगना चाहिए? और क्यों लगता है? ज्ञानी! मोह क्या तेरा स्वभाव है ? मोहनीय कर्म है, वह भी ज्ञेय है । उस मोहनीय कर्म को भी आप ज्ञेय बनाइये, हेय बनाइये, क्यों उसको उपादेय मान रहे हो ? धिक्कार हो उस जीव को, जो मोह को भी अपना मान रहा है। यही है तत्त्व की भूल । हे मद! तू उन्मत्त करता है, लेकिन मेरा नहीं है । धिक्कार है इस जीव को जो उन्मत्त करने वाले को अपना कहता है कि मेरा मोह सता रहा है। मोह में भी 'मेरा' शब्द जोड़ता है । धिक्कार हो, घोर धिक्कार हो । अब बिचारे हिल नहीं सकते, डुल नहीं सकते। मेरा मोह यानि जो मेरा नहीं है, मेरे और मोहनीय कर्म में अत्यंताभाव है और अत्यंताभाव में तू सद्भाव देख रहा है। मेरा मोह, तो अब नहीं हो सकता कल्याण । जब तक मोह मेरा चलेगा, तब तक कल्याण कहाँ और निर्मोही का अकल्याण कहाँ । द्रव्यमोह में अत्यंताभाव, लेकिन भावमोह में स्यात् कथंचित् । भाव मोह में अभिन्नभाव है, लेकिन अभिन्न भाव भी परसापेक्ष है । इसलिए वह भी अत्यंताभाव है। यदि मोह भी स्वभाव बन गया, , तो मेरे सिद्ध स्वभाव में भी मोह चला जाएगा। इसलिए जिसका अभाव होता है, वह तो अत्यंताभाव है । संश्लेष संबंध होने पर भी संश्लेष संबंध अत्यंताभाव में ही होता है । स्वभाव में संश्लेष संबंध होता ही नहीं है। अविनाभाव में संश्लेष संबंध होता ही नहीं स्वरूप देशना विमर्श 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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