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________________ है, वह उसको देखकर प्रसन्न होगा। इन दोनो में जिसे विपरीत आकार पसन्द नहीं है, उसके लिए अभूतार्थ दिख रही है प्रतिमा । जिसको पसन्द है, उसके लिए भूतार्थ दिख रही है प्रतिमा । लेकिन ज्ञानियो! यह आकार जो बाहर का है, उस बाहर के आकार में आप हेय-उपादेयता इष्ट-अनिष्टता खोज रहे हो। लेकिन अब ज्ञानी जीव न अरहंत के आकार को देखना चाहता है, न विपरीत आकार को देखना चाहता है, वह पाषाण को निहारता है तब उसमें न हेयपना है, न उपादेयपना है। उसमें वस्तुत्व भाव है, मात्र पदार्थ दिख रहा है। जिसको इस प्रतिमा के आकार में भी राग नहीं, उस प्रतिमा के आकार में भी राग नहीं, ज्ञानियो! उसे वस्तु धर्म मात्र दिखाई दे रहा है, पत्थर है। ___ अरहंत की प्रतिमा, एक जीव को श्रद्धान करके समयक्त्व का साधन बन रही है और दूसरे को उसी प्रतिमा में अश्रद्धान करके मिथ्यात्व का साधन बन रही है। प्रतिमा में सम्यक्त्व है, कि मिथ्यात्व है? एक जीव गवासन से बैठ करके तीन बार नमोस्तु कर रहा है। हे स्वामिन्! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु क्योंकि उसको तो अरहंत देव दिखाई दे रहे हैं, सम्यक्त्व का साधन बन रही है प्रतिमा और एक जीव नग्न प्रतिमा को अश्रद्धापूर्वक देख रहा है, तो वह उसे निधत्ति निकाचित कर्मबंध का साधन बन रही है। आज जगत् में दूसरे के पर्याय की, धर्म की चर्चा करने वाले कोटि-कोटि जीव मिलेंगे कि वे ऐसे वे ऐसे; लेकिन सच बताओ पर्याय का धर्मात्मा कि तेरे परिणामों का धर्म कैसा है? ____ भूतार्थ भी अभूतार्थ है, अभूतार्थ भी भूतार्थ है। मुमुक्षु! राग में, द्वेष में, क्लेश में, क्रोध में, कषाय में जो वस्तु भूतार्थ दिखाई देती है, वही साम्य परिणाम हो जाने पर अभूतार्थ हो जाती है। कामी को कामिनी अच्छी लगती है? भूतार्थ लगती है। खोज करता है। बेचारे संकटों को लेने के लिए ढोल-बैंड के साथ पालकी में बैठकर गये थे। ओहो! खुश हो रहे थे कि आनन्द लूलूंगा। भैया फँस गया। अब रोता है, महाराज! परेशानी है, घर में पटती नहीं है। उस दिन पूछने नहीं आया जब घोड़े पर बैठने जा रहा था। आज पूछने आया कि महाराज! पटती नहीं है, क्या करूँ? कम से कम एक दिन पूछने ही आ जाता कि महाराज! जाऊँ कि नहीं? ओहो! कितना खुश होकर जा रहा था। वही उसको भूतार्थ लगता है। जैसे योगी को आत्मरमणी नजर आती है, वैसे ही तुझे भोगों की रमणी में राग था। लेकिन जिस दिन घर में विकल्प उठते हैं, उस दिन लगता है कि फँस गया। आज भूतार्थ नजर आया है। अभूतार्थ में भूतार्थ दृष्टि थी तेरी। आज भूतार्थ समझ में आया है कि गृहस्थी में भूतार्थ नहीं, गृहस्थी (158) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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