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________________ स्वरूप संबोधन (स्वरूपदेशना) में द्वैत अद्वैत भाव -पं० राजेन्द्र कुमार 'सुमन', सागर (म०प्र०) एक ही समय में द्रव्य कथञ्चित विधिरूप है, कथञ्चित निषेधरूप है। कैसे? स्वधर्म की अपेक्षा वस्तु विधिरूप है, परधर्म की अपेक्षा से वस्तु निषेधरूप है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव की अपेक्षा से मैं नास्ति रूप हूँ। ये पुद्गल द्रव्य है, स्वचतुष्टय की अपेक्षा से अस्तिरूप। ये जीव है क्या? नास्ति रूप । एक ही द्रव्य में एक समय में विधि भी है, निषेध भी है। आत्मा मूर्तिक भी है, अमूर्तिक भी है। बोध मूर्ति, ज्ञानमूर्ति की अपेक्षा से आत्मा अमूर्तिक है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का अभाव होने से आत्मा अमूर्तिक है। इसलिए स्याद् मूर्तिक, स्याद् अमूर्तिक । संसारी आत्म भी बंध की अपेक्षा मूर्तिक है, निबंध स्वभाव की अपेक्षा से अमूर्तिक है। आप लोग क्या हो? बंध दृष्टि से मूर्तिक हूँ और अबंध स्वभाव से अमूर्तिक हूँ। इसलिए हमारी आत्मा अनेकांतमयी है।तत्त्व को समझें । यह स्वरूप है। प्रश्न है कि यह आत्मा विधिरूप है या निषेधरूप है? मूर्तिक है या अमूर्तिक है? तो आचार्य देव सर्वथा भाववादी व अभाववादीयों को लक्ष्य कर कहते हैं स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्म-परधर्मयोः। समूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्यययात्॥ अर्थः वह आत्मा स्व-धर्म और पर-धर्म में विधि और निषेध-रूप होता है वह ज्ञानमूर्ति होने से मूर्तरूप/साकार है और विपरीत रूप वाला होने से अमूर्तिक है। ____ आचार्य भगवान् अकलंक स्वामी स्वरूप संबोधन' ग्रंथ में आत्मा की परम सत्ता का कथन कर रहे हैं। जो अवाच्यभूत है, वाच्यभूत है। कितना गहरा है तत्त्व का चिंतन, कि जिसे आत्मभूत मान बैठा था, उसे अकलंक स्वामी अंश भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। आचार्य अकलंक स्वामी स्वीकार नहीं कर रहे, इसलिए ऐसा नहीं है। वस्तु का स्वरूप ऐसा है, अकलंक स्वामी वैसा कह रहे हैं। कुछ लोगों का चिंतन होता है कि आचार्य महाराज का नाम ले लिया तो इन आचार्य का ऐसा मत होगा। ये आचार्य का मत नहीं है। जैसी वस्तु व्यवस्था है, उस वस्तु व्यवस्था का आचार्य महाराज ने कथन किया है। ये क्षायोपशमिक ज्ञान है कि एक ही पदार्थ पर, किस जीव का चिन्तवन कहाँ पहुँच जाए । इसमें आप ये तुलना नहीं करना कि कुन्दकुन्द स्वामी ने क्यों नहीं कहा? स्वरूप देशना विमर्श (151) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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