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________________ सामाजिक मिथ्यात्व पर भी आचार्य श्री विचार प्रस्तुत करते हुए सूतक-पातक के निषेध करने को ठीक नहीं मानते । (पृ० 365) इतनी विवेचना या ग्रंथ के आधार पर चर्चा करने से इतना फलित हुआ कि मिथ्यात्व की करामात की करामात से व्यक्ति पंच पापों में फैलता है, दर्शन-ज्ञान चरित्र के प्रति असावधान बनता है। देव-शास्त्र गुरु से श्रद्धा हट जाती है। आधुनिकता के चक्कर में संस्कृति का नाश होता है। व्यक्ति अष्टमद में मस्त होने लगता है। उसके संस्कार नष्ट होते हैं। उसकी सामाजिकता में न्यूनता आने लगती है। व्यक्ति में पनप रहा द्वेष, ईर्ष्या इसके कारण है। पुण्य का लोभ भी उसे स्वार्थी बना रहा है। श्रावक ही नहीं हमारा साधु वर्ग भी शिथिलाचारी, पंथवादी, प्रतिष्ठा का भूखा हो रहा हैं। आत्मस्वरूप को बिसरा रहा है। परद्रव्य से प्रीति सबकी बढ़ रही है। यों कहूँ कि – “सत् गुरु देव जगाय, मोह नींद जब उपशमै । यह मोह की नींद नहीं टूट रही है उसे ही तोड़ने का प्रयत्न ये प्रवचन है। कृति की समीक्षा की दृष्टि से देखें तो आचार्य श्री ने अनेक प्रश्नों को विविध रूपों से समझाने का प्रयत्न किया जिससे पुनरावर्तन अधिक हुआ है उसी कारण से हमारे आलेख में भी बहुत पुनरावर्तन मिलेगा। , एक वाक्य में “जो आत्मा को आत्मसुख के अनुभव से वंचित करे वह सब मिथ्यात्व है' यही सार है। श्लोक 21 में आचार्य स्वयं कहते हैं - "आत्मदर्शन का कोई साधन है तो वह स्वरूप संबोधन है। यदि स्वरूप का संबोधन नहीं किया तो दर्शनों का संबोधन कोई कार्यकारी नहीं।... स्वरूप संबोधन का तात्पर्य निज आत्मा को निज आत्मा से समझना है। निज आत्मा से निज आत्मा को सम्हालना ही स्वरूप संबोधन है।.... अपने में राग और दूसरों में द्वेष मत करो यही तो स्वरूप संबोधन है। अंत में बुन्देलखण्ड की एक बात कहूँ जो मिथ्यादृष्टि की व्याख्या है उससे उल्टा सब सम्यग्दृष्टि है "मिथ्यादृष्टि जीव को शास्त्र कभी न सुहाय। कै ऊँधै कै लर परै, के उठ घर को जाये॥ आचार्य श्री की इस टीका पर सहज ही 40-50 पृष्ठ लिखे जा सकते थे पर समय और शक्ति की मर्यादा से जो फूल चुन सका उसी का गुलदस्ता प्रस्तुत है। पूरे बगीचे का आनन्द तो, पूरे ग्रंथ के अध्ययन से ही प्राप्त होगा। -स्वरूपदेशना विमर्श 150 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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