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जब मिथ्यात्व का पटल दूर होगा तभी हम प्रभु से यह माँग सकेंगे कि "हैं स्वामी ! सब कुछ मिले, लेकिन डाह किसी को न मिले, ईर्ष्या न मिले। (पृ० 313) अरे! मिथ्यात्व की करामात आज की नहीं है भगवान ऋषभदेव के समवसरण से भी मरीचि जैसे लोग भाग गये थे। मिथ्यात्व के प्रचार में पंथ बनाये । भव-भव तक गति भ्रमण किया ।
दृष्टि की पवित्रता ही सुन्दर दर्शन कर पाती है। यदि खोटे दर्शन में चित्त लगा और आयु बंध हो गया तो भव-भव में कुगति में भटकना पड़ेगा। यही कारण है कि पंचेन्द्रिय के विषयों से बँधा जीव मृत्यु को ही प्राप्त होता है। एक-एक इन्द्रिय का दुख ही भयानक है फिर पाँचों इन्द्रियों के असंयमी का क्या होगा ?
आचार्यश्री 15 वे श्लोक में अच्छे श्रावक व्यक्ति बनने के फार्मूले देते हैं यदि वे जीवन में उतर जायें तो सचमुच कल्याण हो । ( पृ० 329) वर्तमान में व्याप्त शिथिलाचार, विवेकहीनता की ओर इशारा किया है। ( पृ० 338) देखिए मिथ्यात्व का प्रभाव - "जब भगवान की वाणी का पानी गिर रहा था तब हमारे आत्मा के बीज उल्टे गड़े हुए थे, सो पंचमकाल में आ गया। अभी भी हमारी बात मान लो तो छटवें काल से बच पाओगे ।” (पृ० 334)
समय के मूल्य को समझो उसे बर्बाद होने से बचाओ । पर को धोने में तूने कितना समय निकाला है? निज को धोने में निकाल लेता तो भगवान् बन जाता । ( पृ० 338) जिनेन्द्र की वाणी सुनने से मन के विषय - कषायों के नाग भी ढीले पड़ जाते हैं। (पृ० 340) हम मिथ्यात्व के कारण अपनी पहाड़ सी गलती को राई सी समझते हैं और दूसरों की राई सी गलती पहाड़ सी लगती है। मुमुक्षु सोच समझ तन का कोढ़ी तो मोक्ष जा सकता है पर मन का कोढ़ी नहीं जा सकता । तन का कोढ़ मन के कोढ़ का कार्य है, कारण तो मन का कुष्ट है। (पृ० 342) यह मन का कुष्ट ही तो मिथ्यात्व है ।
पर छिद्रान्वेषण से छूटने पर ही आत्मदर्शन होंगे। (पृ० 347) जब पुण्य क्षीण होते हैं तब मिथ्यात्वं का प्रवेश होने लगता है और विचारों में क्षीणता आने लगती है। बुद्धि पलायन करती है आदि ..... ( पृ० 348)
आचार्य श्री ने प्रवचन की महत्ता को कई स्थानों पर या कहूँ पूरे ग्रन्थ में महत्वपूर्ण माना है। सच्चे मन से श्रवण करने वाला ही मन से मुस्करा सकता है। (पृ० 353) दुर्भाग्य यह है कि हमने पवित्र मन को विषयों का घूरा बना लिया है। उसे दूर करना होगा। उन्मार्ग का त्याग करना होगा, अन्यथा सन्मार्ग प्राप्त नहीं होगा । हमें देह के पिंजड़े से स्वतंत्र होना हैं । ( पृ० 359)
स्वरूप देशना विमर्श
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