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आज श्रावक ने अपने षट्कार्य क्यों छोड़ दिये ? कतिपय मुनि दोपहर की सामायिक श्रेष्ठियों के साथ नए नक्शे बनाने में बिता देते हैं- क्या ? यह मिथ्यात्व का कारण नहीं है?
हमारे अन्दर जो कर्तापने का अहम् जाग रहा है वही हमें कर्तव्य विमुख कर रहा है । (श्लोक 10 का सार उत्तम क्षमा के पत्थर वो फेंक रहा है, पर हृदय में चेहरे पर क्षमा के भाव गायब हैं ।
आचार्य 12वें श्लोक में सूत्रवाक्य में जैसे सब कुछ कह देते हैं- "पर्यायदृष्टि नरकेश्वरा, द्रव्यदृष्टि महेश्वरा" अर्थात् जितने नरकेश्वर बनने वाले हैं, वे सब पर्याय में लिप्त मिलेंगे, मिलने ही चाहिए। जिनको नरकेश्वर बनना हो वें सब पर्याय में लिप्त हो जाओ ।...यदि परमेश्वर बनना है तो द्रव्य दृष्टि लानी पड़ेगी। ये धन पैसे वाली नहीं, द्रव्यदृष्टि की बात करो। (पृ० 289) वे कहते हैं कि श्रुतज्ञान से धन प्राप्ति संभव है पर विद्याजीवी बनना ही श्रेष्ठ है। आज हमने विद्या का व्यापार डिग्रियों के अहम् को पाल रखा है- इससे भी मुक्त होना होगा तभी मिथ्यात्व छूटेगा ।
कुछ ज्ञान के अजीर्ण लोगों पर व्यंग्य देखिए- "तिलोयपण्णति और षट्खंडागम जैसे ग्रंथों में भी तुम कभी खोजने लग जाओ तो तुम्हारे ज्ञान में शुद्ध अजीर्ण हो गया है। श्री जिनेन्द्र का अभिषेक को जो जड़ क्रिया कहे, जगत में उससे बड़ा पापी कौन हो सकता है? श्रावक की क्रिया है, छूट जायेगी तो बेचारा श्रावक करेगा क्या? किसी के द्वेष में इतना मत बह जाना कि अपने ही मूल को खो बैठो। यही हुआ है। दूसरे के द्वेष में इतना ज्यादा बहक गये कि अपने ही घर को बिगाड़ बैठे। ( पृ० 305) कहते हैं कि - "घर को ही आग लग गई घर के चिराग से।" मिथ्यात्व की यह करामात होती है कि वह अवर्णवाद को उकसाता है । विपरीत कथन की प्रेरणा देता है । सत्य को सत्याभास बनाने का प्रयत्न कराता है। (पृ० 306)
देखिये जैनधर्म का एक नियम भी कितना दृढ़ माना गया है- पद्मचरित्र में लक्ष्मणजी का यह कथन- "लक्ष्मणजी ने गुणमाला से कहा था- "हे देवी! यदि मैं वापिस नहीं आऊँ तो मुझे वह दोष लगे जो रात्रि के भोजन करने वाले को लगता है और विश्वास रखो यदि मैं वापिस नहीं आया तो मैं पंचमकाल का मनुष्य बनूँ। (पृ० 308) कितनी स्वच्छ थीं हमारी जैन क्रियायें और आज कितनी दूषित ?
अरे मिथ्यात्व तो ऐसे पाँव पसारेगा कि मुनियों पर भी टैक्स लगेगा। ( पृ० 310) अरे! इस पंचम काल में उत्तम कार्य करने वालों की निन्दा करने वालों की कमी नहीं । ऐसे लोग देव - शास्त्र गुरु की निन्दा व अवर्णवाद फैलाते ही हैं। पर हमें भी ध्यान रखना होगा कि हम दोषों से बचें। अपने अंतर-बाह्य को द्वैत न बनायें। (पृ० 313)
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