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________________ जैसे 8 मद व्यक्ति को मिथ्यात्व में धकेलते हैं वैसे ही लोभ चाहे वह संपति का हो, नाम का हो, पद-प्रतिष्ठा का हो या चाहे स्वर्ग-मोक्ष का हो वह सब मिथ्यात्व कषाय के ही विविध रूप हैं। हम मुनि के आहार के लिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सैंकड़ों रूपये खर्च करते हैं क्योंकि पुण्य का लोभ लगा है- पर एक गरीब को एक रोटी भी देने से कतराते हैं। मैं एक सत्य और कहना चाहूँगा कि हमारे गुरुओं ने ऐसा मेस्मेरीज्म किया है कि भोले श्रावकों को ऐसी घुट्टी मिलती है कि मात्र मंदिर बनवाओ, प्रतिष्ठा कराओ, मुनि विहार-आहार कराओ.... पुण्य की डिग्री लो और स्वर्ग का बीजा तैयार है। वे कमी उन गरीबों की और नहीं देखते जिन्हें चन्द दानों की आवश्यकता है। ___“मैंने अपनी अस्पताल में सूत्र वाक्य दिया है- “मृत्यु के द्वार पर पहुँचे व्यक्ति की दवा कराके जीवनदान देना किसी मन्दिर निर्माण से कम पूण्य नहीं और अंधत्व के किनारे खड़े व्यक्ति को नेत्रदान दिलाना किसी पंचकल्याण प्रतिष्ठा से कम कार्य नहीं। क्या हमारे गुरु ज्ञान की अंजनशलाका से हमारे नेत्र उन्मीलिन कर हमें मानव सेवा का मार्ग बतायेंगे या मात्र अपने आहार के पुण्य के ही उपदेश देंगे? मैं मानता हूँ कि आत्मा को परमात्मा बनाने का मार्ग वे प्रशस्त करें,पर मानवता का मार्ग अवरुद्ध न करें। "आज का ज्ञानी कहना तो बहुत जानते हैं, परन्तु करना भूल गये । इसलिए उनकी बात का असर नहीं होता।” (पृ० 151) इसी कारण सामाजिक मर्यादाओं टूट रही हैं। हम नया करने की होड़ में अपनी प्राचीन संस्कृति को खो बैठे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में निशाचर की नई व्याख्या देखिए- "जो त्यागी,योगी को अतिथि सत्कार किए बिना भोजन कर लेता है वह निशाचर है।” (पृ० 162) ___ आज मॉर्डन बनने की होड़ में हमने धर्म को ही नकार दिया है। आज हमारे लिए शर्म की बात है कि हम कहते हैं- "हम धर्म-कर्म को नहीं मानते। हम तो रात्रि को खाते हैं- होटल में खाते हैं, सब चलता है।" यह कथन किसी श्रावक के मुँह से निकलना मिथ्यात्व की घोर करामात नहीं तो और क्या है? हमारी भाषा भी तद्नुसार विकृत अपमानजनक हो गयी है। (पृ० 171) कन्याओं और युवतियों में अंग प्रदर्शन की विकृति कहाँ से आई? किसका प्रभाव है? क्या यह परोक्ष व्यभिचार नहीं? क्या इसके लिए माँ-बाप जिम्मेदार नहीं? मेकअप हमें बेकअप बना रहा है। आज परदोषारोपण और परछिद्रान्वेषण की वृत्ति वृद्धिंगत है। (पृ० 207) अरे शाम को प्रतिक्रमण और दिन को आक्रमण- यह कौन सा धर्म है? आज के युवक को मंदिरजी में पूजा करने में शर्म आती है पर बर्गर, पीजा खाने, डिस्को में जाने में गौरव होता है- क्यों? इसके मूल में हमारी श्रद्धा की कमी या संस्कारों का अभाव । स्वरूप देशना विमर्श (147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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