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ही करामात है कि वह हमें ध्यान से हटाकर वे ध्यान या प्रमादी बनाता है। हमारी श्रद्धा को डगमगाता है। श्रद्धा का कमजोर होना ही सम्यग्दर्शन का अभाव है।
समस्त जीव स्वतंत्र हैं- पर मोहनीय कर्म के कारण जो मिथ्यात्वं पनपता है वह सांसारिक संबंधों में बाँधता है, रूलाता है, भटकाता है और निम्नगति का कारण बनाया है। पूरे ग्रंथ में दृष्टि का विचार विविध दृष्टिकोणों से हुआ है। अर्थ का अनर्थ करना हमारी मिथ्या प्रकृति है। कहा है- “पाप – पुण्य मिल दोऊयापन बेड़ी डारी" ज्ञानियों ने कह दिया पाप और पुण्य दोनों बेड़ियाँ हैं- एक लोहे की दूसरी सोने की। बस मिथ्यात्व ने बुद्धि भ्रमित की और हमने पाप करने में हिचक नहीं की और पुण्य से मुँह फेर लिया। इससे कितना अनिष्ट हुआ यह सोचा? हम दोनों बेड़ियों के अर्थ को ही नहीं समझ पाये । होना तो यह था कि पहले पाप छोड़ते और क्रमशः पुण्य से भी मुक्त होकर अमूर्त आत्मा बनते । आचार्य विशुद्ध सागर जी चौथे श्लोक को समझाते हुए कह रहे हैं- “कषायों की लीनता में जो ले जाये वह अज्ञान नहीं, अज्ञानधारा है। मिथ्यात्व की पुष्टि में ले जाये, वह सद्बोध नहीं, अज्ञानधारा है। कूटनीति/कुनीति में ले जाये वह अज्ञानधारा है। (पृ० 115) द्रव्य दृष्टि से दूर कर दे और द्रव्य दृष्टि में दृष्टि डाल दे वह अज्ञानधारी है। मिथ्यात्व की यही तो करामात है कि ज्ञानियों को भी ज्ञान के प्रभाव से रोकता है। वह ज्ञानावरण का कारण बन जाता है। ऐसा ज्ञान समाज को विखण्डन करता है। (पृ. 16)
एक उदाहरण देखिए कितना सटीक है- “ए बता! कि तेरे घर में पूड़ियाँ बनी हैं और तू अपना चेहरा देखने गया और तेरा छोटा भैया आया और उसने दर्पण के ऊपर पूड़ी घुमा दी, तो बोल ज्ञानी तेरा चेहरा दिखेगा....? पूड़ी जो स्निग्ध है और स्निग्धता दर्पण पर आ जाये तो चेहरा दिखाई नहीं देता। ऐसे ही भोग जो हैं वे स्निग्ध हैं और भोगी को ध्रुव आत्मा दिखाई नहीं देती । (पृ० 119) इस उद्धरण का भाव आप समझ गये होंगे। __वर्तमान में जो भक्ष्य-अभक्ष्य का ज्ञान लोप हो रहा है या किया जा रहा है इसमें सही ज्ञान की कमी एवं मिथ्यात्व का ही कारण है। वर्तमान कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो आज मिथ्यात्व का वायरस हमारे ज्ञान स्वरूप कम्प्यूटर को बिगाड़ रहा हैखुलने ही नहीं देता। (121)- कैसा विचित्र लगता है जब वीतराग का पथिक - दिगम्बर मुद्रा में था। अन्य मुनि या आचार्य दूसरे संघ के वीतरागपंथी को सहन नहीं कर पाता। उनके फोटू उतरवा देता है। यह इस काल के अहम् का ही परिणाम है। मिथ्यात्व का विकास है। आचार्य श्री ने बड़ी निर्भयता से ऐसे साधुओं पर कलम चलाई है।मूलतःसारा खेल दृष्टि क्या है। जब तक दृष्टि में सही बदलाव नहीं आता तब तक सृष्टि के सही दर्शन भी नहीं हो पाते,रंगीन चश्मा बदलना जरूरी है।
-स्वरूप देशना विमर्श
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