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________________ प्रति भी अशुभ भाव आ जाते हैं! मैं तो इस संदर्भ में मानता हूँ कि सम्यग्दर्शन में जो आठ अंग हैं उनमें कांक्षा, शंका, अविचिकित्सा, देव-शास्त्र - गुरु के प्रति अश्रद्धा ये सब इस मिथ्यात्व के उदय से ही होते हैं। मिथ्या दृष्टि जीव सदैव अशुभ क्रिया की मुख से अनुमोदना कर, अन्य को पथभ्रष्ट भी करता है। (भाव पृ० 57) इनका निवारण है सच्चे भाव से जिनवाणी का श्रवण और ग्रहण। वर्तमान में प्रमाद ही मिथ्यात्व का नया रूप धरकर आया है। यही कारण है कि हम पूजा करने खड़े होते हैं- पर मन में पूज्य भाव नहीं आता। हमें प्रक्षाल अभिषेक में जल्दी है, साधनों का यथास्थान अच्छी तरह से रखना नहीं आता, हम शास्त्रों को ढंग से नहीं उठाते हैं, न पढ़ते हैं न उनकी रक्षा करते हैं। बस दिखावे की पूजा, स्वाध्याय रह गये हैं। हम तो इतने प्रमादी हो गये कि अब मंदिर में सब कार्य माली या पुजारी करे। धुली द्रव्य मिल जाये, वस्त्र मिल जाये, सब सजा हुआ हो, कोई पूजा पढ़ दे तो हम मात्र दिखावे के लिए द्रव्य चढ़ाते हैं। क्या इसे आप सच्ची पूजा कहेंगे? आत्मा-वात्मा कुछ नहीं यह कहने वाली पीढ़ी पाश्चात्य-भौतिकवादी, क्षणिकवादी, चार्वाकपंथी मिथ्यात्व से घिर गयी है इसके लिए माँ-बाप की सावधानी की कमी, संस्कारों के प्रति उदासीनता और गुरुओं का रूखा व्यववहार भी कारणभूत है। हमारा युवक कभी किसी प्रेरणा या शरम में गुरु के पास पहुँच जाता है तो गुरु उस पर प्रश्नों की तोप दागते हैं; क्या खाते हो......... क्या खाना चाहिए..... फलां नियम लो..... नरक का भय बताने लगते हैं, अतः वह युवक फिर उनकी परछाई में भी नहीं आता । मैं पूछता हूँ कि मिथ्या धारणायें बनने में हमारा दायित्व नहीं है? हमें युवाओं या अज्ञानियों में धर्म के सत्व को उनकी ही भाषा में समझाकर उन्हें अन्तर से श्रद्धावान बनाना होगा । (भाव पृ० 70) सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि (दृष्टि अर्थात् देखने का नजरिया) का एक अवतरण देखें- “मन से पूछे कि तुम सुन्दर चेहरे को देख रहे हो तो क्यों देख रहे हो? विश्वास रखना भैया! सुन्दर चेहरे को वही देखता है, जिसका मन असुन्दर हो चुका है। जिसके मन असुंदर हैं वे सुन्दर चेहरे को देखते हैं। जिनका मन सुन्दर होता है वह न सुन्दर देखता है न असुंदर" (पृ० 75) यहाँ विकारी और अविकारी भाव की चर्चा है। या ब्रह्म या अब्रह्म पर विचार है। अभेद दृष्टि ही सत्य के करीब ले जा सकती है। ___सम्यग्दृष्टि वेद से ऊपर उठकर आत्मा को निहारता है, जबकि मिथ्यादृष्टि उसमें स्त्री-पुरुष, नपुंसक आदि वेद देखता है। इसकी पूरी चर्चा श्लो नं0 3 में की गयी है। (पृ० 83) सम्यग्दृष्टि ध्यानी है और मिथ्यादृष्टि बे ध्यानी । बेध्यानी व्यक्ति यदि ड्राईवर है तो हजारों जीवों की मृत्यु का कारण बन सकता है। यह मिथ्यात्व की स्वरूप देशना विमर्श - -(145) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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