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में बाँट दिया है- बाँट रहा है। इसमें मैं साधुओं का दोष अधिक देखता हूँ। आज शिष्यों को मूड़ने या संख्या बढ़ाने की होड़ क्या सचमुच वैराग्य के कारण है? साधुओं में फैल रहा शिथिलाचार और श्रावकों में जैन धर्म को जानने के बाद भी फैल रहा व्यभिचार, भ्रष्टाचार किसके कारण है? क्या महँगे कार्यक्रम, साधुओं की प्रसिद्धि की लालसा इसमें कारणभूत नहीं? ध्यान रखना कोई किसी को सुधार नहीं सकता जबतक शुभ कर्मों का उदय नहीं आता । उपदेश भी निरर्थक हो जाते हैं। आ० इतना ही तो पूछते हैं- “जब तू असत्य को सत्य कर रहा होगा, तेरी आत्मा का क्या हो रहा होगा?” (पृ० 35) इसका उत्तर ही तुझे सत्य के पथ पर ले जायेगा। ___ वर्तमान युग तर्क से अधिक कुतर्क का युग है। युवा वर्ग में जैसे नफरत या अनास्था भर गयी है। वह तर्क या कुतर्क से अपने पिता या दादा से पूछता है कि स्वर्ग क्या है? क्या आपने देखा है? वगैरह (पृ० 35) यह अनास्था का मिथ्यात्व है, और हमारे संस्कारों की कमी भी। आ० कुन्दकुन्द की वाणी तो पढ़िये- “हे जीव! मणिमंत्र-तंत्र हाथी, घोड़ा- ये सब तेरे पास हों, लेकिन हे मुमुक्षु! मरण के काल में कोई तेरी रक्षा नहीं कर सकता” (पृ० 39) श्रावको! धन-माल की उपलब्धि हथेली के खुजलाने से नहीं, पुण्य कर्म से ही होती है इसे समझना । यह मिथ्यात्व का ही प्रकोप है कि व्यक्ति यह जानता है कि वह पाप कर रहा है- वह फिर भी करता है। व्यापारी चार का चालीस कर पाप से धन कमा रहा है-झूठी कसमें खाता है- कोई अज्ञानता में पाप नहीं करता, बुद्धि पूर्वक कर रहा है..... उसका फल भोगना पड़ता है। (पृ० 41) जिन श्रावकों या जैनियों का मन घर में ताला लगाकर, व्यापार की चिन्ता न कर प्रवचन में लगता था- अब वे घड़ी बाँधकर घड़ी में बँध गये हैं। (पृ० 42) ___ त्याग हो जाने पर सीताजी ने यही तो कहा था अपने रथ वाहक से कि मेरे पति से कहना कि, “लोकापवाद के कारण मुझे भले ही छोड़ दिया पर धर्म को कभी मत छोड़ना" । पर आज स्वार्थ, लोभ भय व लोकापवाद के कारण पत्नी और धर्म सभी छोड़ रहे हैं।
हम प्रवचनों में सुनते है कि विपरीत वृत्ति वाले के प्रति माध्यस्थ भाव रखो-पर क्या अंतर का कषायभाव ऐसा करने देता है? यह किसका प्रभाव है? मिथ्यात्व का ही न कैसी विडंबना है- भैय्या सुनो कुछ ऐसे लोग भी हैं। इधर मंदिर में घंटी बजाते रहते हैं उधर घर में, समाज में क्लेश भी करते रहते हैं, ऐसे यदि मरकर देव भी बनेंगे तो भूत बनेंगे और सताने का काम करेंगे- यह है मिथ्यात्व का प्रभाव । (पृ० 51)
आचार्य और भी गहराई में जाकर समझाते हैं कि जो- “दर्शन से भ्रष्ट ही है। (पृ० 55) यह मानसिक विकृतियाँ मिथ्यात्व की ही करामात समझो कि जिनमूर्ति के
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-स्वरूप देशना विमर्श
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